थूजा आक्सिडेण्टेलिस | Thuja Occidentalis

थूजा आक्सिडेण्टेलिस | Thuja Occidentalis

ग्रौवोल के उद्जनमय शारीरिक गठन (Hydrogenoid constitution) के लिए उपयोगी, जो प्रमेह विष से सम्बन्धित भी है और उसका कारण भी है।

थूजा का हैनीमैन के उपदंश, जिसके अर्न्तगत अंजीरी मस्से, जननांगों पर प्रकट होने वाली गिल्टियां तथा श्लेष्म एवं चर्म तलों पर प्रकट होने वाले मस्सों जैसी गिल्टियाँ आती हैं, से ठीक वैसा ही सम्बन्ध है जैसा सल्फर का कच्छुविष एवं मर्करी का उपदंश से है ।

यह लसीकाप्रधान प्रवृत्ति वाले अत्यधिक मांसल व्यक्तियों में उत्तम क्रिया करती है जिनका काला रंग होता है, जिनके काले केश होते हैं तथा जिनकी अस्वस्थ त्वचा रहती है।

टीका लगने के दुष्प्रभाव के कारण प्रकट होने वाले रोग (एण्टिम-टार्ट साइली); सूजाक की दबी हुई अथवा अनुपयुक्त चिकित्सा के बुरे फल (मेडी) ।

स्थिर विचार, जैसे उसके पास कोई अपरिचित व्यक्ति खड़ा हो; जैसे आत्मा और शरीर एक-दूसरे से अलग हो गये हों जैसे उदर के अन्दर कोई जानवर हो; जैसे वह किसी प्रबल शक्ति के प्रभावाधीन हो ।

विक्षिप्त स्त्री का न तो स्पर्श होगा, न उसके सामने जाया जायेगा ।

भ्रमि, आँखें बन्द करने पर (लैके, थेरी) ।

सिरदर्द – जैसे कपालास्थि के अन्दर नाखुन चुभा दिया गया हो (काफि,      इग्ने); अथवा जैसे कोई उभरा हुआ बटन उस स्थान पर चिपका दिया गया हो; सम्भोग की अधिकता, अत्यधिक तपन और चाय से वृद्धि (सेली); जीर्ण अथवा प्रमेह या उपदंश मूल का ।

श्वेत, पपड़ीदार रुसी केश शुष्क और झड़ते हुए ।

नेत्र – शिशु-नेत्राभिष्यन्द, प्रमेह अथवा उपदंश मूल का; दीर्घ कणांकुरता, मस्सों या छालों जैसे; गरमाई देने तथा ढक कर रखने से आराम, यदि उन्हें खुला छोड़ दिया जाय तो लगता है जैसे उनके अन्दर से ठण्डी हवा तेजी के साथ बाहर निकल रही हो ।

पलकें – रात को चिपक जाती हैं; किनारों पर शुष्क पपड़ियाँ, गुहेरियाँ और पपोटों पर गिल्टियाँ; गिल्टियाँ, मोटी कठोर गाँठे, छोटे-छोटे मस्सों जैसी; स्टेफिसैग्रिया के बाद जब आंशिक आराम मिलता है, किन्तु आरोग्यलाभ नहीं होता ।

कर्ण – जीर्ण कर्णशोथ; स्राव पीब जैसा, मानो सड़ा हुआ मांस हो; कणांकुरता, मस्से अनेक जड़ों वाले फोड़े, पीले, लाल, कोषीय, सहज रक्तस्रावी ।

जीर्ण प्रतिश्याय – दाने निकलने के बाद; गाढ़ा, हरा श्लेष्मा, रक्त और पीब (पल्सा) ।

दांतों की जड़ें नष्ट हो जाती हैं, ऊपर वाला भाग स्वस्थ रहता है (मेजी; किनारे पीले पड़ जाते हैं – स्टैफि; टूट जाते है, पीले पड़ जाते हैं – सिफिली)

उपजिह्वा – नीली अथवा जिल्ह्वा के ऊपर वाली या मुख के अन्दर की शिरायें फूल जाती हैं (एम्बरा) ।

चाय पीने से दन्तशूल

“नाक साफ करते समय खोखले दान्त में अथवा उसी पार्श्व में दबाव मारती हुई पीड़ा (क्यूलेक्स) ” – बोर्निंगहासन

उदर – जैसे कोई जन्तु रो रहा हो, ऐसी गति होती है जैसे कोई जीवित प्राणी हो; भ्रूण हाथ के समान इधर-उधर फैलता है (क्राक्कस, नक्स-मौ, सल्फ) ।

चलते समय सवारी करते समय बायें डिम्बाशय प्रदेश में कष्टदायक एवं ज्वलनकारी दर्द बैठना या लेटना पड़ता है (क्राक्कस, अस्टि); प्रत्येक ऋतुकाल में वृद्धि ।

मलबद्धता – मलांग में प्रचण्ड पीड़ा, फलस्वरूप मलत्याग का प्रयास रोकना पड़ता है; मल एक बार बाहर निकलने के बाद पुनः मलाशय के अन्दर वापस चला जाता है (सैनीक्यू, साइली) । बवासीर के मस्से सूजे हुए, बैठने पर बहुत तेज पीड़ा ।

अतिसार – प्रातःकालीन; अधोवायु के साथ मल सवेग बाहर निकलता है। (एलो); ऐसी गड़गड़ाहट होती है जैसे किसी पीपे से पानी उड़ेला जा रहा हो; प्रातःकालीन नाश्ते के बाद, काफी पीने से, वसाहार से, टीका लगने के बाद, प्याज खाने से वृद्धि ।

मलद्वार दरारयुक्त, स्पर्शकातर, चपट्टे मस्सों अथवा आर्द्रा श्लैष्मिक मस्सों से घिरा हुआ ।

योनि की अत्यधिक स्पर्शकातरता के कारण रतिक्रिया में अवरोध (प्लैटी; रूक्षता के कारण – लाइको, लाइस, नेट्) ।

चर्म – गन्दी दिखाई देती है; इधर-उधर कत्थई रंग के अथवा कपिश- श्वेत धब्बे मस्से दीर्घाकार, दानेदार बीज जैसे (स्टेफि); शरीर के ढके हुए भागों में उद्भेद, जिनमें खुजाने से जलन होती है।

मांस ऐसा लगता है जैसे पिटाई की गई हो, अस्थियों से (फाइटो; जैसे  मांस खुरचा गया हो – रस)

मूत्र-स्थान के बाद ऐसी अनुभूति होती है जैसे मूत्रमार्ग के अन्दर मूत्र टपक रहा हो; मूत्र त्याग करते ही तेज काटती हुई पीड़ा (सर्सा) ।

ठण्ड, जांघों में आरम्भ होने वाली ।

पसीनामात्र खुले भागों में अथवा सिर को छोड़ कर सारे शरीर में (साइली के विपरीत) जब वह सोता है, जागने पर बन्द हो जाता है (सैम्बू के विपरीत); प्रचुर, खट्टी गन्ध से भरपूर, दुर्गन्धित, रात को ।

जननेन्द्रियों पर होने वाले पसीने से शहद जैसी गन्ध आती है।

चलते समय ऐसा लगता है जैसे हाथ-पैर लकड़ी के बने हों।

शरीर, विशेष रूप से हाथ-पैरों में ऐसी अनुभूति होती है जैसे वे शीशे के बने हों और सहज ही टूट जायेंगे।

सूजाक की दबी हुई अवस्था; फलस्वरूप सन्धिवात, पुरःस्थग्रंथिशोष प्रमेह, नपुंसकता, मस्से तथा अन्यान्य शारीरिक विकारों की उत्पत्ति होती है ।

नाखून विकृत टूटने वाले (एण्टि-क्रूड) ।

सम्बन्ध

  • मेडोर, सेबाइ, साइली से पूरक ।
  • कैन-सैट, कैंथ, कोपे, स्टैफि से तुलना कीजिये ।

लिंगाग्रचर्म पर प्रकट होने वाले मस्सों के लिए सिन्नावे अधिक उपयोगी है ।

मेडोर, मक्यूँ, नाइट्रि-एसिड के बाद उत्तम क्रिया करती है।

रोगवृद्धि – रात को; बिस्तर की गर्मी से प्रातः 3 बजे तथा सायं 3 बजे, शीतल, नम हवा से नशीले पदार्थों से ।

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