सिफिलीनम | Syphilinum

सिफिलीनम | Syphilinum

सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक होने वाले दर्द; सन्ध्याकाल में आरम्भ होते हैं और दिन के प्रकाश के साथ ही लुप्त हो जाते हैं (मर्क्यू, फाइटो) । दर्द धीरे-धीरे बढ़ता घटता रहता है (स्टैन) स्थान बदलता रहता है। और निरन्तर अपनी स्थिति बदलनी पड़ती है ।

समस्त लक्षणों में रात्रिकालीन वृद्धि होती है (मर्क्यू); सूर्यास्त से सूर्योदय तक ।

चर्म-विस्फोट – मन्द लाल, ताम्बे के रंग जैसे ठण्ड लगने पर नीले हो जाते हैं । सारे शरीर की अत्यधिक कृशता (एब्रोटे, आयोड) ।

हृदय – रात को आधार से लेकर शिखर तक विदीर्णकारी पीड़ा (शिखर से लेकर आधार तक – मेडौर; आधार से लेकर स्कन्धास्थि अथवा स्कन्ध तक – स्पाइ) ।

स्मरण शक्ति का लोप; पुस्तकों, व्यक्तियों अथवा स्थानों के नाम याद नहीं कर सकता ।

अनुभूति – जैसे पागल होने जा रहा हो, जैसे पक्षाघातग्रस्त होने वाला हो; विरक्ति एवं उपेक्षा किये जाने की।

जागने पर मानसिक एवं शारीरिक थकावट के कारण रात्रि का भारी भय; रात्रि असह्य लगती है, मृत्यु अधिक उत्तम समझता है।

जागने पर थकावट के कारण भारी कष्ट होने से भयभीत रहता है। (लेके) ।

प्रदरस्राव – प्रचुर, पहने हुए वस्त्रो को भिगो देता है और बहता हुआ नीचे एड़ी तक जा पहुँचता है (एलूमि) ।

सिरदर्द – स्नायविक प्रकृति का, फलस्वरूप रात को नींद नहीं आती और प्रलाप की अवस्था घेर लेती है; शाम को 4 बजे आरम्भ होता है, 10 – 11 बजे बहुत बढ़ जाता है और दिन निकलते ही बन्द हो जाता है (11 – 12 बजे बन्द हो जाता है – लाइको) केश झड़ते हैं।

नवजात शिशुओं का तरुण नेत्राभिष्यन्द; पलकें सूजी हुई, निद्रावस्था में परस्पर चिपक जाती हैं; रात को तीव्र पीड़ा, रात को 2 बजे से प्रातः 5 बजे तक अत्यधिक पीड़ा; प्रचुर पीव; ठण्डे पानी से धोना आरामदायक ।

वत्मर्पात (Ptosis) – ऊर्ध्वं पलक का पक्षाघात; पलकें लटक जाने से उनींदा दिखाई देता है (कास्टि, ग्रैफा) ।

द्विगुणदृष्टि, एक आकृति के नीचे दूसरी आकृति दिखाई देती है ।

दान्त – मसूड़ों के किनारे पर नष्ट हो जाते हैं और टूट जाते हैं; वे कप जैसे बन जाते हैं और किनारों से रक्तस्राव होता है; आकार में छोटे पड़ जाते हैं, नोक पर जुड़ जाते हैं (स्टैफि) ।

मदिरापान की उत्कट इच्छा, किसी भी रूप में मदिरा पीने की वंशगत प्रकृति (एसार, सोरा, टुबर, सल्फ, सल्फ्यू-एसिड) ।

वर्षों पुरानी असाध्य मलबद्धता मलांत्र जैसे सिकुड़न से कसी हुई हो; जब एनीमा लगाया गया तो मल निकलते समय प्रसव जैसी भयंकर वेदना हुई (लैक-केनी, टुबर)। मलद्वार एवं मलांग में ददारें (थूजा); मलांत्र की स्थानच्युति असाध्य रोगावस्थाओं के साथ उपदंश का इतिहास ।

स्कन्ध-सन्धियों अथवा स्कन्ध की त्रिकोणपेशी का आमवात, भुजा को तिरछा उठाने से वृद्धि (रस; दायाँ स्कन्ध – सैंग्वी; बायाँ – फेरम ) ।

उपदंशमूलक रोगों में जब सुनिर्वाचित औषधि असफल पाई जाती है। अथवा स्थायी आरोग्य लाभ नहीं दे पाती ।

किसी अन्य औषधि का स्पष्ट निर्देश न होने पर इस औषधि के प्रारम्भिक प्रयोग से उपदंशग्रस्त अथवा ऐसे रोगियों को सदैव लाभ होता है जिनके उपदंश-क्षत की चिकित्सा वाह्य विलेपनों द्वारा की गई हो और फलस्वरूप वे कई वर्षों तक कण्ठ एवं चर्म रोगों के शिकार रहे हों।

सम्बन्ध – अस्थि रोगों तथा उपदंशमूलक उपसगों में और एसाफी, काली- आयो, मर्क्यू तथा फाइटो से तुलना कीजिये ।

रोगवृद्धि – रात को, सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक ।

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