नेट्रम कार्बोनिकम | Natrum Carbonicum
ऐसे व्यक्तियों के लिये जो खुली हवा से घृणा करते हैं तथा मानसिक अथवा शारीरिक परिश्रम करना पसन्द नहीं करते।
भारी दुर्बलता ग्रीष्म ऋतु की गर्मी से (एष्टि-क्रूड) हल्का-सा मानसिक अथवा शारीरिक परिश्रम करने से थकान हो जाती है; कुछ देर चलने के बाद आराम करने को तैयार रहता है; लू लगने के जीर्ण प्रभाव ।
लू लगने के जीर्ण प्रभाव; जब गर्म जलवायु वापस आते ही सिरदर्द से पीड़ित रहता है ।
कृशता के साथ पीला चेहरा तथा नेत्रों के चारों ओर नीले छल्ले: नेत्रपटल फैले हुए गहरे रंग का मूत्र रक्ताल्पता से पीड़ित दुग्ध-धवल पनीली त्वचा और भारी दुर्बलता ।
सोचने-विचारने की असमर्थता अथवा किसी प्रकार का मानसिक श्रम करने की अक्षमता; सिरदर्द हो जाता है; यदि किसी प्रकार का परिश्रम करने का प्रयत्न करता है तो स्वयं को संज्ञाहीन सा महसूस करता है; ग्रहणशक्ति मन्द, कठिन । असह्य विषाद एवं भय; पूर्णतया उदासीन विचारों से घिरा हुआ रहता है। तूफान के दौरान अधीरता और बेचैनी के दौरे पड़ते हैं (फास्फो); संगीत से वृद्धि (सेबाइ) ।
सिरदर्द – हल्का-सा मानसिक काम करने से धूप में अथवा गैस की रोशनी के नीचे काम करने से (ग्लोना, लैके); साथ ही ऋतुस्राव से पहले गर्दन के ऊपरी भाग अथवा सिर के पिछले भाग में तनाव सिर बहुत बड़ा प्रतीत होता है जैसे फट जायेगा ।
चेहरा पीला होने के साथ नेत्रों के चारों ओर नीले छल्ले; पलकें चिपकी हुई प्रतिश्याय; कण्ठ एवं पृष्ठ नासारन्धों के अन्दर श्लेष्मा; गला साफ- रखने के लिये निरन्तर खखारना पड़ता है; पृष्ठ नासारन्ध्रों से कण्ठ के अन्दर श्लेष्मा टपकता रहता है ।
प्रतिश्याय – पृष्ठ नासारन्धों तथा कण्ठ तक फैल जाता है; खखारने पर कण्ठ के अन्दर से बहुत सारा बलगम निकलता है; दिन के समय विपुल स्त्राव होता है; रात को बन्द हो जाता है (नक्स) । नाक से गाढ़ा, पीला, हरा, दुर्गन्धित, सड़ा हुआ, कठोर स्राव; खाना खाने के बाद बहुधा बन्द हो जाता है।
दूध से अरुचि इससे अतिसार प्रकट हो जाता है।
नीचे की ओर दबाव देती हुई प्रसव जैसी अनुभूति होती है जैसे प्रत्येक वस्तु बाहर निकल आयेगी (एगारि, लिलिय, म्यूरे, सीपिया); भारीपन, बैठने से वृद्धि, गति करने से ह्रास । आलिंगन करने के बाद योनि से श्लैष्मिक स्राव, फलस्वरूप बन्ध्यता हो. जाती है।
टखने सहज ही उतर जाते हैं और उनमें मोच आ जाती है (लीड); इतने अधिक दुर्बल रहते हैं कि जबाव दे देते हैं; पैर नीचे की ओर मुड़ जाता है (कार्बो-एनि, नेट्र- म्यूरि ) ।
सम्बन्ध –
- खमीर जैसे वमन में नेट-सल्फ्यू से तुलना कीजिये ।
- अन्य तुलनीय औषधियाँ हैं – कल्के और सीपिया ।
- नीचे की ओर दबाव देती हुई प्रसव जैसी अनुभूति में सीपिया के बाद उत्तम क्रिया करती है ।
रोगवृद्धि – संगीत से; धूप में; ग्रीष्म ऋतु की बड़ी हुई गर्मी; मानसिक श्रम; तूफान ।
नेट्रम म्यूरिएटिकम
अरक्तक एवं रुग्ण व्यक्तियों के लिये; चाहे ऐसी स्थिति विपुल परिमाण में ऋतुस्राव होने तथा शुत्रक्षय, आदि जैवी द्रव्यों के नष्ट होने से उत्पन्न हुई हो अथवा मानसिक रोगों से । अत्यधिक कृशता, उत्तम जीवन–यापन करते हुये भी शरीर का मांस घटता चला जाता है (एब्रोटे, आयोड);
ग्रीष्मकालीन व्याधियों के दौरान बच्चों के कंष्ठ एवं ग्रीवायें द्रुत गति से कृश होती चली जाती है (सैनीक्यू)। सर्दी जुकाम लगने की भारी प्रवृत्ति (करके, काली-कार्बो) ।
चिड़चिड़ापन – बात करने पर बच्चा चिढ़ जाता है; मामूली कारण से ही रो पड़ता है; छोटी-छोटी बातों पर क्रुद्ध हो जाता है, विशेष रूप से सान्त्वना दिये जाने पर, भद्दा, जल्दबाज, स्नायविक दुर्बलता के कारण वस्तुयें नीचे गिरा देता है (एपिस, बोविस्टा) ।
अत्यधिक रुदनशील प्रकृति; उदास एवं रुदनशील स्वभाव, जिसका कोई कारण नहीं होता (पल्सा), किन्तु अन्य व्यक्तियों द्वारा सान्त्वना दिये जाने पर उसके कष्ट बढ़ जाते हैं।
सिरदर्द – अल्परक्तता के कारण, स्कूल जाने वाली लड़कियों का (कल्के- फास्फो); सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक; बाईं ओर का मस्तकशूल; जैसे सिर फट रहा हो; साथ ही लाल चेहरा, मितली और वमन ऋतुस्राव से पहले, उसके दौरान और उसके बाद; ज्वरावस्था के दौरान ऐसा लगता है जैसे मस्तिष्क के अन्दर हजारों छोटी-छोटी हथौड़ियाँ चोट कर रही हों; पसीना आरामदायक । सिरदर्द – दृष्टिलोप के साथ आरम्भ होने वाला (आइरिस, काली-बाइ); साथ ही आंखों में बिजली जैसी कौंधती हुई चमचमाहट, फलस्वरूप स्पन्दनशील सिरदर्द; नेत्रों पर दबाव पड़ने से ।
अधुप्रवाह – जब कभी खांसता है तभी नीचे चेहरे पर आंसू की धार उतर आती है (यूफ्रे) ।
परागज ज्वर – नथुने के अन्दर रेंगती हुई अनुभूति, जैसे कोई छोटा-सा कीड़ा चल रहा हो; तेज धूप लगने अथवा ग्रीष्म ऋतु की तेज गर्मी से प्रत्युत्पन्न ।
जिह्वा – नक्शेदार, साथ ही छोटे-छोटे लाल धब्बे; किनारों पर दाद जैसे धब्बे (आर्स, लैके, मर्क्यू, नाइट्रि-एसिड, टेरेक्स); भारी कठिन सम्भाषण; जिह्वा के ऊपर बाल विद्यमान होने की अनुभूति (साइली) ।
बच्चे धीमी गति से चलना सीखते हैं।
मलबद्धता – गुदा के सिकुड़ जाने की अनुभूति तदुपरान्त फटन, रक्तस्त्राव और चिलक मारती हुई पीड़ा; मल शुष्क, कठोर, कठिन, टूटने वाला (एमो- कार्बो, मैग्नी-म्यूरि); मलांत्र के अन्दर सुई जैसी चुभन (नाइट्रि-एसिड); निरंकुश, पता ही नहीं चलता कि हवा खारिज हुई हैं या मल निकलता है। (एलो, आयोड, म्यूरि-एसिड, ओलिए, पोडो) ।
मूत्र – चलते समय, खाँसते समय, हँसते समय स्वतः निकल जाता (कास्टि, पल्सा, सिल्ला); मूत्रत्याग के दौरान यदि कोई अन्य व्यक्ति उपस्थित रहता है तो मूत्रोत्सजनार्थ बड़ी देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है (हीपर, म्यूरि-एसिड) तदुपरान्त मूत्रमार्ग के अन्दर काटती हुई पीड़ा (सर्सपै) ।
शुक्रमेह – सम्भोग करने के तुरन्त बाद, साथ ही कामोद्रक बढ़ा हुआ; इन्द्रियों की दुर्बलता के साथ आलिंगन के दौरान वीर्यपात रुक जाता है; नपुंसकता, मेरुदण्ड की उत्तेजना, पक्षाघात सम्भोग की अधिकता के बाद ।
प्रतिदिन प्रातः काल जननांगों की ओर दबाव और धक्का जरायु-भ्रंश रोकने के लिये नीचे बैठना पड़ता है (लिलिय, म्यूरेक्स, सीपिया) ।
हृदय की फड़फड़ाहट, साथ ही एक प्रकार की दुर्बल मूर्च्छा जैसी अनुभूति, जो लेटने से बढ़ती है (लैके) । हृत्स्पन्दन सारे शरीर को झकझोर देता है (स्पाइजी) ।
स्तनपान कराने वाली स्त्रियों के केश स्पर्श करने पर झड़ने लगते हैं (सीपिया); चेहरा तैलावृत्त, चमकदार, जैसे ग्रीज पुती हुई हो (प्लम्ब, थूजा)
ऐसे बुरे प्रभावों के लिये, जिनकी उत्पत्ति अन्य व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले दुर्व्यहार के फलस्वरूप प्रकट होने वाले क्रोध से, खट्टे खाद्य पदार्थों के सेवन से, रोटी खाने से, कुनीन का सेवन करने से अत्यधिक नमक खाने से या सिल्वर नाइट्रेट द्वारा खाद्य-पदार्थों को झुलसाने से होती है तथा जिनका कारण किसी प्रकार का शोक सन्ताप, भय, परेशानी, नाराजगी अथवा दबा हुआ असन्तोष होता है (स्टेफि) ।
छिलौरी (hangnails) – नाखून के चारों ओर की त्वचा सूखी हुई और फटी हुई ( ग्रैफा, पेट्रोलि); मलद्वार के आस-पास तथा ग्रीवा के पीछे केशों के किनारे-किनारे विसर्प, (घुटनों के पीछे – हीपर, ग्रैफा) । हथेलियों पर मस्से (स्पशंकांतर – नेट-कार्बो) ।
स्वप्न – घर के अन्दर चोर-लुटेरों के, तथा जागने पर स्वप्न के विपरीत तब तक विश्वास नहीं होता जब तक भली-भांति छान-बीन नहीं कर लेता (सोरा); ज्वलनकारी प्यास लगने के ।
ज्वर के फफोले, अधरों पर मोती की तरह; अधर शुष्क, दाहक और फटे हुए, व्रणग्रस्त (नाइट्रि-एसिड) ।
घुटनों की पीछे वाली शिराओं में दर्दनाक सिकुड़न (एमो-म्यूरि, कास्टि गायक) ।
अत्याधिक नमक खाने की इच्छा (कल्के, कास्टि) रोटी से घृणा ।
छाजन – कच्चा-कच्चा, लाल, प्रदाहित, प्रमुख रूप से केशों के किनारों पर अत्यधिक नमक का सेवन करने से, समुद्र के करने किनारे या समुद्री यात्रा से वृद्धि ।
शीतपित्त – तरुण अथवा जीर्ण; सारे शरीर पर, विशेष रूप से कोई कठोर शारीरिक व्यायाम करने के बाद (एपिस, कल्के, हीपर, सैनीक्यू, आर्टिका) ।
सविराम ज्वर – प्रातः 10 या 11 बजे दौरा; पुराना, जीर्ण; ऐसी अवस्थायें जिनकी अनुचित चिकित्सा की गई हो, विशेष रूप से कुनीन द्वारा ज्वर दबा दिये जाने पर; सिरदर्द, साथ ही शीत एवं ताप के दौरान बेहोशी; पसीना होने से दर्द कम होता है।
सम्बन्ध –
- एपिस से पूरक इस से पहले और इसके बाद प्रभावी क्रिया करती है ।
- नेट्रम म्यूरि इग्नेशिया की जीणौषधि है जो इसकी निकटतम एवं सदृश- तम जड़ी-बूटी है।
- इस के बाद सीपिया और पूजा की उत्तम क्रिया होती है।
- जीर्ण रोगों में इसे किसी मध्यवर्ती औषधि दिये बिना तब तक नहीं दोहराना चाहिये जब तक लक्षणों की सदृशता के अनुसार इसका निर्देश न हो ।
- ज्वरावेग के दौरान इसे कदापि नहीं दिया जाना चाहिये।
- यदि सिर में चक्कर और दर्द निरन्तर विद्यमान रहे अथवा नेट्रम दिये जाने के बाद भी चिरस्थायी अवसन्नता छाई रहे तो नक्स का प्रयोग लाभदायक सिद्ध होगा ।
रोगवृद्धि – प्रातः 10 या 11 बजे समुद्र के किनारे या समुद्री हवा सूर्य या स्टोव की गर्मी से मानसिक श्रम करने, बातचीत करने, लिखने पढ़ने से; लेटने से ।
रोगह्रास – खुली हवा में (एपिस, पल्सा); ठण्डे स्नान से; अनियमित भोजन करने से; दाई ओर लेटने से (पीड़ाग्रस्त पार्श्व के सहारे लेटने से – ब्रायो, इग्ने, पल्सा) ।
नेट्रम सल्फ्यूरिकम | Natrum Sulphuricum
ऐसा रोगावस्थायें, जिनमें मौसम की आद्रता से तथा नमीयुक्त घरों अथवा तहखानों में रहने के फलस्वरूप वृद्धि होती है अथवा जिनकी उत्पत्ति इन्हीं परिस्थितियों के कारण होती है (अरेनिया) ।
रोगी शुष्क जलवायु का आद्र जलवायु में परिणत होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को महसूस करता है; न तो समुद्री हवा सहन कर सकता है न पानी के निकट पैदा होने वाले पौधों को ही खाता है ऐसा शारीरिक गठन जिसमें प्रमेह विष सर्वाधिक हानिकारक पाया जाता है प्रत्येक रोगावस्था से धीरे-धीरे आरोग्यलाभ पाता है । वसन्त ऋतु में प्रत्येक बार चर्म रोग पुनः प्रकट हो जाते हैं (सोरा) ।
सोचने की असमर्थता (नेद्र-कार्बो) । उदास, शोकार्त, चिड़चिड़ा; प्रातःकाल अधिक; न स्वयं बोलना ही पसन्द करता है न यही चाहता है कि कोई उस से बात करे (आयोड, साइली) । हताश – मधुर संगीत सुन कर उदास हो जाती है । जीवन से उकताया हुआ स्वयं को गोली से मार देने की इच्छा को रोकने के लिये भारी आत्मसंयम रखना पड़ता है ।
मानसिक चोट; सिर में चोट लगने के फलस्वरूप प्रकट होने वाले मानसिक विकार किसी कुन्द हथियार द्वारा तथा गिरने के कारण सिर में चोट लग जाने के दुष्प्रभाव ।
पलकों पर दाने छोटे-छोटे फफोलों के समान (थूजा) हरी पीव तथा भारी प्रकाश भीति (Photophobia) सूजाक अथवा प्रमेहमूलक ।
ऋतुस्राव के दौरान नकसीर फूट जाती है (ऋतुस्राव के बदले – ब्रायो, पल्सा) ।
दन्तशूल, जिसमें मुख के अन्दर ठण्डा पानी रखने या ठण्डी हवा से आराम आता है (काफि, पल्सा) ।
जिह्वा के ऊपर गन्दी हरी पूरी अथवा कत्थई रंग की परत जमी हुई।
अतिसार – आकस्मिक, मलावेग, पिचकारी की तरह निकलने वाला अत्यधिक अधोवायु प्रातःकाल जागने के बाद सर्वप्रथम पैरों पर खड़ा होते ही; भीगे मौसम के झटके के बाद सीली जमीन में रहने अथवा काम करने से ।
सुजाक – हरा-पीला, दर्द-हीन, गाढ़ा स्राव (पल्सा); जीर्ण अथवा दबा हुआ (गाढ़ा, हरा – काली-आयोड) ।
श्वासकष्ट – नमीदार, मेषाच्छन्न जलवायु के दौरान गहरा श्वास लेने की
इच्छा । बच्चों में तर दमा; जलवायु का नमी में बदलने के साथ प्रत्येक बार; ताजी ठण्ड लगने के साथ हर बार नमीयुक्त, बरसाती मौसम, हमेशा रोग-वृद्धि करता है; बलगम हरा-हरा, विपुल मात्रा में (हरा-भूरा – कोपे) ।
प्रमेहमूलक फुफ्फुसपाक – बायें फुफ्फुस का निचला खण्ड; वक्ष की भारी दुखन, खाँसते समय उठ कर बैठना पड़ता है तथा दोनों हाथों से वक्ष को पकड़ना पड़ता है (निक; दायाँ फुफ्फुस – ब्रायो) ।
सुषुम्नावरणशोथ (Spinal meningitis) – मस्तिष्क-मूल पर कुचले या कुतरे जाने जैसी प्रचण्ड पीड़ा; सिर पीछे की ओर खिचा हुआ;
ऐंठन के साथ चिड़चिड़ापन और प्रलाप सिर में तीव्र रक्तसंलयन प्रलाप धनुर्वात (जिसमें शरीर अकड़ कर पीछे की ओर मुड़ जाता है)।
सम्बन्ध –
- नेट्र-म्यूरि एवं सल्फ से तुलना कीजिये जिनमें भारी समानता है ।
- उद्जनाभ शारीरिक गठन वाले व्यक्तियों में प्रकट होने वाले उपदंश एवं प्रमेह में थूजा और मर्क्यू से तुलना कीजिये ।
रोगवृद्धि – नमीयुक्त स्थानों अथवा घरों में रहने से ; आद्र जलवायु से (अरेनि, आर्से-आयो, डल्का); विश्राम करने और लेटने से ।
रोगह्रास – शुष्क जलवायु दबाव, उठ कर बैठने से (खांसी) स्थिति
परिवर्तन से (किन्तु भीगे मौसम में आराम – कास्टि) ; खुली हवा ।
निरन्तर स्थिति परिवर्तन के लिये बाध्य रहता है, किन्तु वह कष्टदायक होता है और बहुत कम आराम मिल पाता है (कास्टि) ।