मेग्नीशिया म्यूरिएटिका | Magnesia Muriatica
स्त्री रोगों के लिए विशेष उपयोगी ऐंठनयुक्त एवं वातोन्मादी उपसर्ग, जो जरायु रोगों के साथ उपद्रवशील रहते हैं; जो कई वर्षों से अजीर्ण अथवा पित्त-दोष से पीड़ित रह चुकी हैं।
बच्चे कठिन दग्तोद्गम के दौरान दूध नहीं पचा पाते; इससे पेट में दर्द हो जाता है और वह बिना पचे ही निकल जाता है; दुबले-पतले, सुखण्डी से पीड़ित, जिनमें मिठाई खाने की अदम्य इच्छा पाई जाती है ।
शोरगुल के प्रति अत्यधिक सम्वेदनशीलता (इग्ने, नक्स, थेरी) ।
सिरदर्द – प्रत्येक छठे सप्ताह, माथे और आंखों के चारों ओर; जैसे सिर फट जाएगा; गति करने से तथा खुली हवा में वृद्धि; लेटने तथा कठोर दबाव देने से (पल्सा) तथा सिर को गरम कपड़े से अच्छी तरह लपेटने से (साइली, स्ट्रोंशि) आराम । सिर में अत्यधिक पसीना होने की प्रवृत्ति (कल्के, सैनीक्यू, साइली) ।
मुख के अन्दर लगातार सफेद झाग निकलता रहता है। डकारें, जिनका स्वाद सड़े हुए अण्डों तथा प्याज जैसा होता है (श्वास में प्यास जैसी गन्ध आती है – सिनापि) ।
दन्तशूल – जब भोजन दान्तों का स्पर्श करता है तो उनमें असह्य पीड़ा होती है।
चलते समय एवं स्पर्श किये जाने पर यकृत कठोर बड़ा हुआ दाई ओर लेटने से दर्द बढ़ता है (मर्क्यू, काली-कार्बो)।
मलबद्धता – मल कठोर, अल्प परिमाण में, दीर्घाकार, भेड़ की मेंगनी जैसा गुठलीदार मलत्याग में कठिनाई; मलद्वार पर आकर टूट जाता है (एमो-म्यूरि नेट-म्यूरि); दन्तोद्गम के दौरान शिशुओं को होने वाली ।
मूत्र – फीका, पीला, उदर पेशियों पर नीचे की और दबाव देने से ही निकल सकता है; मूत्राशय की दुर्बलता ।
ऋतुस्राव – स्रावकाल में प्रत्येक बार भारी उत्तेजना; स्त्राव काला, थक्केदार; चलते समय कमर में ऐंठन और पीड़ा जो जांघों तक फैल जाती है; अत्यार्तव, जो रात को बिस्तरे में लेट कर बढ़ता है और वातोन्माद की अवस्था पैदा कर देता है (एक्टिया, कौलो) ।
प्रदरस्राव – व्यायाम करने के बाद, मलत्याग करते समय प्रत्येक बार; तदुपरान्त अत्यार्तव; ऋतुस्राव के दो सप्ताह बाद तीन-चार दिन तक (बैरा, बोवि, कोनि) ।
बैठे रहने पर धड़कन और हृत्पीड़ा, जो हिलने-डुलने से बढ़ जाती है (जेल्सी से तुलना कीजिए) ।
सम्बन्ध – बाल रोगों में कमोमिला से तुलना कीजिए ।