लाइकोपोडियम क्लेवेटम | Lycopodium Clavatum

लाइकोपोडियम क्लेवेटम | Lycopodium Clavatum

बौद्धिक गुणों से तीव्र, किन्तु शारीरिक रूप से दुर्बल व्यक्तियों के लिये; शरीर का ऊपरी भाग कृश, निचला भाग अर्धशोकमय; फुस्फुस एवं यकृत रोगों की प्रवृत्ति (कल्के, फास्फो, सल्फ); अत्युन्नत आयु, बच्चों तथा बुद्ध व्यक्तियों के लिये विशेष उपयोगी । गम्भीर उतरोतर बढ़ने वाले जीर्ण रोग

दर्द – कसक और दबाव मारते हुए, खिचावदार, प्रमुखतया दाईं ओर के, सायंकाल चार बजे से आठ बजे तक वृद्धिदायाँ पार्श्व प्रभावित, अथवा दर्द दाई ओर से बाई ओर को जाता है। कण्ठ, वक्ष, उदर, यकृत, डिम्बग्रन्थियां ।

बच्चे दुर्बल, कृशकाय; साथ ही सुविकसित सिर, किन्तु वामन रूप, रुग्ण

बच्चा सारे दिन रोता है, और सारी रात सोता है (जला और सोरा के विपरीत) ।

भय, क्रोध, परिगलन अथवा आन्तरिक असन्तोष के कारण बढ़ी हुई परेशानी के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले रोग (स्टैफि)। लोभी-लालची, कंजूस, बुरे विचारों वाला, डरपोक ।

चिड़चिड़ा – जागने पर चिड़चिड़ा और जिद्दी ; बदमिजाज, ठोकर मारता है और चिल्लाता है; सहज क्रुद्ध हो जाता है; विरोध अथवा प्रतिवाद सहन नहीं कर सकता; झगड़ा मोल ले लेता है; आपे से बाहर हो जाता है ।

सारे दिन रोती है, स्वयं को शान्त नहीं कर सकती; अत्यधिक असहिष्णु, धन्यवाद दिये जाने पर भी रोती है। पुरुषों का भय एकाकीपन का डर, चिड़चिड़ा और विषादग्रस्त (बिस्म, काली-कार्बो, लिलिय) ।

पीलीबन्दीमुखाकृतिः चेहरा अस्वस्थ, धंसा हुआ होने के साथ गहरी सुरियां, अपनी आयु से अधिक आयु का दिखाई देता है; नासा-पक्षकों की पंखे जैसी फड़फड़ाहट (एण्टि-टार्ट) ।

प्रतिश्याय – नाक सूखी हुई, रात को बन्द हो जाती है, मुख के रास्ते श्वास लेना पड़ता है (एमो-कार्बो, नक्स, सम्बूक) बच्चों की नाक बन्द हो जाती है। बच्चा नाक रगड़ता हुआ नींद से जाग जाता है नासिकामूल एवं नथुनो के अगले भागों में निर्मोक एवं लचीले डाट (काली-बाई, मेरम) ।

रोहिणी रोग – गलतोरणिका कपिश लाल, झिल्ली बाई गलतुष्टिका से बाई ओर फैलती है, अथवा नाक के अन्दर से नीचे की ओर दायीं गलतुण्डिका तक उतर आती है; सोने के बाद तथा ठण्डे पेय पदार्थी से वृद्धि (गर्म पेय पदार्थों से वृद्धि – लैके) ।

प्रत्येक वस्तु का स्वाद खट्टा लगता है; डकारें, हृद्दाह, मुख के अन्दर जलसंचय, खट्टा वमन (शीत एवं ताप की मध्यवर्ती अवधि में) । श्वान-क्षुधा अर्थात् कुत्ते जैसी भूख जितना अधिक खाता है, उतनी ही और अधिक भूख लगती है; यदि नहीं खाता तो सिरदर्द हो जाता है।

पकाशय के रोगउदर के अन्दर अत्यधिक वायुसंचय; तृप्ति की अविराम अनुभूति उत्तम भूख, किन्तु कुछ ग्रास खाते ही ऐसा लगता है जैसे भोजन पेट से लेकर कण्ठ तक भर गया हो, और उसे लगता है जैसे उसका सारा शरीर फूल गया हो; उदर के अन्दर खमीरण; साथ ही, और प्रमुखतया निचले उदर के अन्दर ऊँची गड़गड़ाहट एवं टरटराहट (ऊपर वाले उदर के अन्दर – कार्बो-बेजि; सम्पूर्ण उदर के अन्दर – सिन्को); पूर्णता, जो डकार आने से भी कम नहीं होती (सिन्को) ।

मलबद्धता – यौवनारम्भ से पिछले प्रसव से घर से बाहर रहने पर; शिशुओं की; साथ ही मलत्याग की निष्फल इच्छा, मलांग सिकुड़ जाती है। तथा मलत्याग करते समय बाहर की ओर फैल जाती है; बढ़ती हुई बवासीर ।

मूत्र में लाल रेतीले कण जो बच्चे के पोतड़े (diaper) पर स्पष्ट दिखाई देते हैं (फास्फो) मूत्रत्याग से पहले बच्चा रोता है (बोरे) पृष्ठवेदना, जो मूत्रत्याग करने पर कम होती है; वृक्कशूल, दाईं ओर (बाईं ओर – बर्बे)।

नपुंसकता – युवा व्यक्तियों में हस्तमैथुन अथवा अत्यधिक सम्भोग के कारण शिश्न छोटा ठण्डा, ढीला-ढाला बूढ़े व्यक्ति, साथ ही अत्यधिक कामेच्छा, किन्तु अपूर्ण लिंगोद्रेक; आलिंगन करते ही नींद आ जाती है; पहले ही वीर्यपात हो जाता है।

योनि की रूक्षता; रतिक्रिया के दौरान और उसके बाद जलन (लाइसि); जरायु-विस्फार । मलत्याग के दौरान प्रत्येक बार योनि से रक्तस्त्राव । लगता है जैसे गर्भाशय स्थित भ्रूण उलट गया हो ।

हर्निया – दक्षिण पार्श्वी अनेक रोगियों को, विशेष रूप से बच्चों को रोगमुक्त करने में सफलता प्राप्त कर चुकी है।

फुफुसपाक (pneumonia) – उपेक्षित अथवा दुचिकित्सित, दायें फुफ्फुस का निचला भाग विशेष रूप से प्रभावित; द्रुत अवशोषण अथवा बलगम बाहर निकालने के निमित्त प्रयुक्त की जाने वाली औषधि ।

खांसी – गहरी, खोखली, बहुत-सा बलगम निकल जाने पर भी बहुत कम आराम महसूस होता है।

एक पैर गर्म दूसरा ठण्डा (सिन्का, डिजि, इपिका) । रात को नींद खुलने पर भूख लगती है (सीना, सोरा) ।

सम्बन्ध –

  • आयोडिन पूरक औषधि है।
  • प्याज खाने, रोटी खाने, शराब अथवा स्पिरिट निर्मित मदिरा पीने, तम्बाकु पीने तथा चवाने के दुष्प्रभाव (आर्से) ।
  • कल्के, कार्बो-वेज, लैके तथा सल्फ के बाद इसकी उत्तम क्रिया होती है।
  • जीर्ण रोगों की चिकित्सा तब तक कभी भी लाइको से आरम्भ नहीं करनी चाहिये जब तक उसके प्रयोग का स्पष्ट निर्देश न हो; ऐसी अवस्था में सर्वप्रथम किसी अन्य कच्छु विषनिरोधक औषधि का प्रयोग करना उचित रहता है।
  • यह एक गूढ़ क्रिया करने वाली तथा एक लम्बी अवधि तक सक्रिय रहने वाली औषधि है, अतः लक्षणों में सुधार पाये जाने पर इसे कम ही दोहराना चाहिये ।

रोगवृद्धि – लगभग समस्त रोगावस्थाओं में सायंकाल 4 बजे से 8 बजे तक (हेलोनि; सांयकाल 4 बजे से 9 बजे तक मैग्नी-फास्फो) । बहते हुए अथवा उडेने जाते हुए पानी को देखने अथवा उसकी ध्वनि से समस्त रोगोपसर्गों में वृद्धि होती है ।

रोगह्रास – गर्म खाद्य एवं पेय पदार्थों के सेवन से सिर को नंगा रखने से; वस्त्रों को ढीला करने से ।

जलातंक, पागल हो जाने का भय । घावों की नीली विवर्णता (लंके) ।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top