लीडम पेलुस्टर | Ledum Palustre
आमवाती एवं गठिया की प्रवणता जैसी रोगावस्थाओं में विशेष उपयोगी; मदिरा के अपव्यवहार के फलस्वरूप बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य (कोनि) ।
परितारिकाछेदन के बाद आँख के अन्दरूनी भाग में रक्तस्राव । नेत्र एवं पलकों की कुचलन, विशेष रूप से जब अधिक रक्तमोषण हुआ हो; पलकों एवं नेत्रों की श्लेष्म कला का नीललांछन ।
आमवात या गठिया निम्नांगों में आरम्भ होता है और ऊपर की ओर फैलता है (नीचे की ओर फैलता है – काल्मि); विशेष रूप से जब काल्चिकम के अपव्यवहार से दुर्बलता की अवस्था उत्पन्न हो गई हो; सन्धियों में गांठें और “गठिया पिण्ड” बन जाते हैं जिनमें पीड़ा होती है; तरुण एवं जीणं सन्धिशोथ ।
बायाँ स्कन्ध एवं दाई नितम्ब सन्धि अधिक प्रभावित (एगारि, एण्टि-टार्ट, स्ट्रामो) । रोगाकान्त अंगों की कृशता (ग्रैफा) ।
दर्द चुभनशील, फाड़ते हुए, स्पन्दनशील आमवाती दर्दों में गति करने से, रात को, बिस्तरे की गर्मी से तथा रजाई आदि ओढ़ने से वृद्धि (मर्क्यू); पैरों को बर्फयुक्त ठण्डे पानी के अन्दर डुवाये रखने से आराम (सीकेल) ।
ऐसे लोगों को आक्रान्त करने वाले रोग जिन्हें हर समय ठण्ड लगती है; सदैव ठण्ड और कम्पकम्पी अनुभव होती है; स्वाभाविक अथवा जैवी ताप का अभाव (सीपिया, साइली); क्षतिग्रस्त भागों का स्पर्श विशेष रूप से ठण्डा लगता है । शरीर के विभिन्न भागों का बाह्य स्पर्श ठण्डा लगता है किन्तु रोगी को स्वयं इसकी अनुभूति नहीं होती । कुछ रोगावस्थाओं में, हाथ-पैरों की गर्मी तथा जलन से बिस्तरे की गर्मी सहन नहीं हो पाती ।
सूजन – पैरों की, घुटनों तक; टखने की, जिसमें चलते समय इतनी असह्य पीड़ा होती है जैसे उस पर मोच आ गई हो या पैर फिसल गया हो; पैर के अँगूठे में सूजन और पीड़ा; एड़ियों में, जैसे वे कुचली गई हों ।
पैरों और टखनों में तीव्र खुलली खुजाने तथा विस्तरे की गर्मी से वृद्धि (पल्सा, रस) ।
टखनों तथा पैरों में सहज ही मोच आ जाती है (कार्बो-एनी) । बरमा, कील, जैसे नुकीले यंत्रों से होने वाले परिछिद्रित घाव (हाइपे); मूषक-दंश, कीट-दंश, विशेष रूप से मच्छरों द्वारा काट दिये जाने पर विशेष उपयोगी।
माथे और गालों पर लाल-लाल फुन्सियों अथवा गाँठें, जैसे ब्रैण्डी पीने वाले व्यक्तियों में पायी जाती हैं; स्पर्श करने पर दंशज पीड़ा की अनुभूति ।
चोट लगने के बाद चोटग्रस्त भाग की विवर्णता चिरकाल तक विद्यमान रहती है; “काले और नीले” स्थान हरे हो जाते हैं।
सम्बन्ध – चोट लगने पर आर्नि, क्रोट-टिंग, हेमा, बेलिस एवं रूटा तथा क्षतिग्रस्तताओं के दीर्घकालिक प्रभावों में कोनि से तुलना कीजिये ।