लेक कनीनम | Lac Caninum
स्नायविक, व्यग्र, अतिसम्वेदनशील व्यक्तियों के लिये ।
लक्षण – भ्रमणकारी, दर्द निरन्तर शरीर के एक भाग से दूसरे भाग को उड़ता चला जाता है (काली-बाइ, पल्सा) कुछ ही घण्टों अथवा दिनों के अन्दर लक्षणों में परिवर्तन होता रहता है।
भारी मुलक्कड़, भ्रान्त, वस्तुयें खरीदता है और उन्हें लिये बिना ही चल देता है ( एग्नस, एनाका, कास्टि, नेट-म्यूरि) । लिखते समय अनेकानेक शब्दों का प्रयोग करता है अथवा अनुपयुक्त शब्द लिखता है; शब्द में अन्तिम वर्ण या वर्णों को लिखना भूल जाता है, लिखने-पढ़ने में एकाग्र चित्त नहीं हो सकता; अत्यन्त स्नायविक (बोवि, ग्रेफा, नेट्र- कार्बो, सीपिया) ।
हताश, निराश; सोचती है कि उसका रोग असाध्य हैं, कि उसकी कोई भी सहेली जीवित नहीं है, कि उसके जीने से कोई लाभ नहीं है; किसी भी क्षण रो पड़ती है (एक्टिया, औरम, कल्के, लैके) ।
जिद्दी, चिड़चिड़ा बच्चा हर समय विशेष रूप से रात को रोता रहता है (जला, नक्स, सोरा) ।
भय – एकाकीपन का (काली-कार्बो); मरने का (आर्से); पागल हो जाने का (लिलिय); सीढ़ियों से नीचे की ओर गिरने का (बोरे) ।
जीर्ण प्रकार की “नीली” अवस्था; प्रत्येक वस्तु इतनी काली दिखाई देती है कि जैसे वह उससे और अधिक काली नहीं हो सकती।
क्रोध के दौरे, मामूली-सी उत्तेजना होते ही कोसना आरम्भ कर देता है या सौगन्ध खाने लगता है (लिलिय, नाइ-एसिड) अत्यन्त भद्दा घृणास्पद ।।
नजला, साथ ही गाढ़ा, श्वेत श्लैष्मिक स्राव । एक नाक बन्द, दूसरा खुला हुआ, जिससे नजला बहता रहता है; इन अवस्थाओं का पर्यायक्रम; स्राव तीखा, नाक और अधर छिले हुए (एरम, सीपा) ।
रोहिणी और गण्डिकाशोथ लक्षण एक पार्श्व से दूसरे पार्श्व में अदलते बदलते रहते हैं। कण्ठदाह एवं खाँसी में ऋतुस्राव के साथ ही आरम्भ होने और समाप्त होने की प्रवृत्ति पीले अथवा श्वेत धब्बे दर्द कान तक पहुँच जाता है।
कण्ठ – बाहर से अत्यन्त स्पर्शकातर (लेके); रिक्त निगरण के दौरान वृद्धि (इग्ने); निगरण की निरन्तर इच्छा, पीड़ाप्रद लगभग असम्भव (मर्क्यू); दर्द कानों तक फैल जाता है (हीपर, काली-बाइ); बाई ओर आरम्भ होता है (संके) ।
रोहिणी की झिल्ली, उपदंश-क्षत एवं व्रणों की चमकदार, चिकनी आकृति ।
भारी भूख, तृप्त होने के लिये बहुत-सा नहीं खा सकता; खाने के बाद भी पहले की भान्ति ही भूखा (कैस्के, कल्के, सीना, लाइको, स्ट्रोंशि) । उदरोध- प्रदेश में दुर्बलता और आमाशय के अन्दर मूर्च्छा-भाव ।
ऋतुस्त्राव – नियत समय से बहुत पहले विपुल परिमाण में बहाव पिचकारी के वेग जैसा, चमकता हुआ लाल, चिपचिपा और सूत जैसा (गहरे रंग का काला, सूत जैसा क्राक) स्तन सूजे हुए, पीड़ाप्रद, ऋतुस्राव से पहले और उसके दौरान स्पर्शकातर (कोनि) । योनि से अधोवायु निकलती है (ब्रोमि, लाइको, नक्स, सैंग्वी ) ।
स्तन – प्रदाहित, पीड़ाप्रद हल्का-सा झटका लगने तथा शाम को वृद्धि; सीढ़ियों पर चढ़ते समय उन्हें दृढ़तापूर्वक पकड़ना पड़ता है (ब्रायो – उतरते) । उन सभी रोगावस्थाओं में लाभदायक जिनमें स्तनों का दूध सुखाने की आवश्यकता पड़ती है (एसाफी, दूध वापस लाने या बढ़ाने के लिये – लेक-डेफ्लो) । स्तनपान कराते समय किसी अज्ञात कारण से दूध गायब हो जाता है (एसाफी) ।
जब नीचे लेटी रहती है तो उसे ऐसा लगता है जैसे उसका श्वास बन्द हो जायेगा; उठ कर टहलना पड़ता है (एमो-कार्बो, ग्रिण्डे, लैके) । बाई ओर लेटने पर हृदय तेजी से धड़कने लगता है, दाईं ओर मुड़ने से आराम (टेबाक) ।
जननेन्द्रियाँ सहज ही उत्तेजित हो जाती हैं, जैसे स्पर्श से, बैठे-बैठे दबाव पड़ने से अथवा चलते समय घर्षण से (सिन्ना, काफि, म्यूरे, प्लैटी) ।
जब चलता है तो उसे ऐसा लगता है जैसे हवा में चल रहा हो; जब लेटा रहता है तो लगता है जैसे उसका शरीर शय्या का स्पर्श नहीं कर रहा है (असार) ।
पृष्ठवेदना – तीव्र असह्य, ऊर्ध्वत्रिक प्रदेश के आर-पार जो दायें नितम्ब तथा दाई पृथुस्नायु तक फैल जाती है; विश्वाम तथा गत्यारम्भ करते समय वृद्धि (रस) मस्तिष्कमूल से गुदास्थि तक मेरुदण्ड में कसक और पीड़ा होती है, स्पर्श अथवा दबाव के प्रति अत्यन्त असहिष्णु (चिनिनि-सल्फ्यू, फास्फो, जिक) ।
सम्बन्ध –
- एपिस, कोनि, म्यूरे, लंके, काली-बाइ, पल्सा, सीपिया, सल्फ के समान ।
- इस औषधि की बहुधा एकल मात्रा में सर्वोत्तम क्रिया होती है।
मैटीरिया मेडिका में शायद ही कोई ऐसी औषधि होगी जिसमें कण्ठोप- सर्गों के इतने स्पष्ट एवं अमूल्य लक्षण मिलेंगे जैसे इस औषधि के सिद्धीकरण में मिलते हैं अथवा शायद ही कोई ऐसी औषधि होगी जिसका सावधानीपूर्वक अध्ययन करने से वह इस औषधि की अपेक्षा अधिक लाभप्रद हो ।
लैकेसिस के समान ही इस औषधि ने भी पक्षपातपूर्ण भावना एवं अज्ञानता के कारण उस प्रचण्ड विरोध का सामना किया है जिस पर इसकी आश्चर्यजनक रोगनिवारकशक्ति ने धीरे-धीरे तथा निश्चित रूप से विजय प्राप्त की है।
प्राचीन काल में डायोस्कोराइड्स, प्लिनी एवं सेक्सटस ने इसका प्रयोग सफलतापूर्वक किया तथा रोहिणी रोग के सफल उपचार में रेजिंग, बेयर्ड और स्वान ने न्यूणर्क में इसे पुनर्जीवन दिया। रेजिग प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने इसे शक्तिकृत किया ।