डल्कामारा | Dulcamara

डल्कामारा | Dulcamara

कफ प्रकृति वाले गण्डमालाग्रस्त रोगियों के लिए उपयोगी व्यग्र चिडचिड़ा । प्रतिस्थायी आमवात (catarrhal rheumatism) अथवा चर्म रोग, जिनकी उत्पत्ति शीत के अनावरण द्वारा, सीलन अथवा बरसाती मौसम या गर्म जलवायु में होने वाले आकस्मिक परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है अथवा इन्हीं कारणों से रोगवृद्धि होती है (बायो) । श्लेष्म-कलाओं से अधिक मात्रा में स्त्राव होता है, ठंड से पसीना दव जाता है। ऐसे रोगी जो सीलनयुक्त, ठण्डे आवासों में रहते हैं या काम करते हैं अथवा किसी दूध की डेरी में काम करते हैं (अरेनि, आर्से, नेट-सल्फ्यू) ।

मनोभ्रम; किसी वस्तु के लिए उचित शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता ।

त्वचा कोमल रहती है, ठण्ड के प्रति असहिष्णु, चर्म-विस्फोट (eruptions) प्रकट होने का स्वभाव, विशेष रूप से छपाकी निकलने की प्रवृत्ति; रोगी को हर समय ठण्ड लग जाती है या वह चिर समय तक ठण्ड से पीड़ित रहता । सर्वांगशोफ शीतज्वर, आमवात एवं रक्तज्वर के बाद ।

शोफ पसीना दब जाने के बाद; चर्म-विस्फोट दब जाने के बाद; शीत के अनावरण से ।

अतिसार – सीजनयुक्त स्थानों पर ठण्ड लग जाने से अथवा आर्द्र, कुहरामय जलवायु के दौरान गर्म जलवायु का ठण्डे जलवायु में बदलने पर (ब्रायो) ।

बढ़ते हुए बच्चों में प्रतिश्यायी मूत्ररोध के साथ मूत्र दूध जैसा; ठण्डे पानी में नंगे पैर चलने से; असंयतमूत्रता ।

ऋतुस्राव से पहले त्वचा पर दाने प्रकट हो जाते हैं (कोनि; विपुल परिमाण में होने वाले आर्तवस्राव के दौरान बेला, ग्रेफा) ।

सारे शरीर में छपाकी निकल आती है, ज्वर नहीं रहता; खुजली होती है। और खुजाने के बाद जलन होती है, जो गर्मी से बढ़ती है, ठण्ड से कम होती है ।

खोपड़ी, चेहरे, माथे, कनपटी और ठोढ़ी पर मोटी-मोटी कत्थई रंग की पीली पपड़ियाँ, जिनके लाल किनारे होते हैं और खुजाने पर उनसे सहज ही रक्तस्राव होने लगता है ।

मस्से – मांसल, दीर्घाकार, कोमल; चेहरे पर अथवा हाथों और उँगलियों के पिछले भाग में (थूजा) ।

सम्बन्ध

  • इस औषधि का बेराइटा कार्बो तथा काली सल्फ्यू से पूरक सम्बन्ध है ।
  • कल्के, नायो, लाइको, रस तथा सीपिया के बाद इसकी उत्तम क्रिया होती है।
  • अतिलारमयता, ग्रंथियों की सूजन, श्वसनिकाशोथ, अतिसार, जलवायु परिवर्तन के प्रति सुग्राहिता एवं रात्रिकालीन पीड़ा में यह मर्क्यू के सदृश है।
  • रासायनिक समानता में यह काली सल्फ्यू से सदृशता रखती है।
  • पारद के दुष्प्रभाव अथवा अपव्यवहार के लिए ।
  • इसका अर्से-एसिड, बेला तथा लेके से प्रतिकूल सम्बन्ध है अतः इसका प्रयोग न तो इन औषधियों से पहले किया जाना चाहिए न बाद में ।

रोगवृद्धि – सामान्यतया ठण्ड लगने से ठण्डी हवा; ठण्डा, गीला मौसम; ऋतुस्राव, चर्म-विस्फोट अथवा पसीना दब जाने से ।

रोगह्रास – इधर-उधर टहलने से (फेरम, रस) ।

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