होम्योपैथी से रोगों का इलाज
होम्योपैथी का प्रारम्भ जर्मनी के एक मशहूर डॉक्टर हैनीमन ने किया था। होम्योपैथी एक ऐसा चिकित्सा विज्ञान है जिसमें बीमारी का इलाज ऐसी दवाओं द्वारा किया जाता है जिनका परीक्षण पूर्ण स्वस्थ मनुष्यों पर किया जा चुका अतः यह चिकित्सा पद्धति निरापद (Fool proof) एवं अकाट्य है।
होम्योपैथी का मूल सिद्धांत प्रकृति का मूल सिद्धांत है। लेटिन भाषा में इस सिद्धांत को ‘सिमिलिया सिमिलिबस क्यूरेन्ट्यूर’ (Similia Similibus Curantur) कहते हैं; । आम जिसका अर्थ है समः सम शमयति । आदमी इसे ‘ जहर ही जहर’ की दवा है, के नाम से जानता है अर्थात ‘विषस्य विषमौषधम् ‘। जिसका बखान हमारे वेदों में बखूबी मिलता है। हम सब जानते हैं कि लोहा ही लोहे को काटता है और गर्मी, गर्मी से ही दूर
होती है।
होम्योपैथी के सिद्धांत के अनुसार किसी औषधि के लेने से स्वस्थ शरीर में जो लक्षण उत्पन्न होते हैं किसी भी रोग में अगर वे लक्षण पाए जाएं तो वही औषधि उन लक्षणों को समाप्त कर शरीर को स्वस्थ कर देगी।
उदाहरण के तौर पर जब कोई स्वस्थ व्यक्ति भांग खा लेता है तो उसे मानसिक भ्रम हो जाता है। एक मिनट एक घंटे के बराबर लगने लगता है, पास की चीजें मीलों दूर नजर आती हैं; हंसना शुरू करता है तो हंसता ही जाता है, बोलना शुरू करता है तो बोलता ही चला जाता है। अपने आप को किसी राजा-महाराजा से कम नहीं समझता । कामोतेजना आ जाती है, पेशाब में जलन व पेशाब बूंद-बूंद कर आने लगता है, सिर दर्द हो जाता है।
होम्योपैथी के सिद्धांत के अनुसार अगर किसी रोग में (चाहे वो सुजाक हो या अन्य कोई रोग) यह लक्षण पाए जाएं तो भांग से बनी होम्योपैथिक औषधि कैनेबिस इंडिका इन लक्षणों को समाप्त कर देगी ।
इस तरह से होम्योपैथी में लक्षणों के आधार पर रोग का इलाज किया जाता है। रोग के नाम का कोई महत्व नहीं है। औषधियों के लक्षण जानने के लिए स्वस्थ मनुष्यों में औषधि परीक्षा की जाती है जिसे औषधि परीक्षण (Drug proving) कहते हैं । इस तरह से हम निम्न निष्कर्ष पर पहुंचते हैं :
- होम्योपैथी मूल प्राकृतिक सिद्धांत पर आधारित है ।
- औषधियां बनावटी बीमारियां उत्पन्न करने में सक्षम हैं।
- किसी औषधि के पूर्ण लक्षण जानने के लिए उसका परीक्षण स्वस्थ मनुष्यों पर किया जाता है ।
- किसी भी बीमारी का इलाज करने के लिए कोई ऐसी दवा जो कि उस बीमारी के लक्षणों के ही समान लक्षण वाली हो, दी जाती है।
होम्योपैथिक औषधियों से स्वस्थ मनुष्यों में उत्पन्न मानसिक व शारीरिक लक्षणों को हम होम्योपैथिक मैटेरिया मेडिका में संग्रहित करते हैं ।
होम्योपैथिक दवाएं किन चीजों से व कैसे बनती हैं ?
होम्योपैथी की दवाएं वनस्पति (जड़, छाल, तना, कली, फूल, पत्ती, अर्क, गोंद, तेल, आदि, या समस्त भाग से), जीवों (उनके स्राव (Secretions of healthy organism), जहर, व उत्तकों आदि, से) शारीरिक अशुद्धियों, रसायनों, खनिज व सिन्थेटिक पदार्थों से बनती हैं। यह मूल अर्क, विचूर्ण, या पोटेन्सी के रूप में हो सकती हैं।
होम्योपैथिक दवाओं को बनाने या रोगियों को देने के लिए निम्न माध्यम (vehicle or media) जिनका अपना कोई खास औषधीय गुण नहीं होता, प्रयोग किये जाते हैं ; ये खुश्क या तरल दोनों रूपों में होते हैं
- मिल्क शुगर (Sugar of Milk) – विचूर्ण बनाने व दवा में मिला कर देने के लिए लिए
- शक्कर (Cane Sugar) – गोलियां या टिकियां बनाने के लिए
- शुद्ध जल (Distilled Water) – दवाइयां बनाने व रोगी को देने के लिए
- ऐल्कोहल (Alcohol) – मूल अर्क व शक्तिकृत औषधि बनाने के लिए
- ग्लिसरीन (Glycerine) – दवाइयों के संरक्षण एवं मरीजों को देने के
- वैसलीन (Vaseline ) – मल्हम बनाने के लिए
- सौलवैन्ट ईथर (Solvent Ether) – दवाओं के परीक्षण के लिए
- सिरप सिम्प्लैक्स (Syrup Simplex) – सिरप आदि बनाने के लिए
मूल अर्क (Mother Tincture) : आमतौर पर वनस्पतियों से बनने वाली दवाइयों, जो ऐल्कोहल में घुलनशील हों, का मूल अर्क तैयार किया जाता है । जिसमें ऐल्कोहल का प्रतिशत नब्बे तक हो सकता है। मूल अर्क को हम ‘Q’ से दर्शाते हैं ।
विचूर्ण (Trituration) : जो पदार्थ ऐल्कोहल में घुलनशील नहीं होते उनको मिल्क शुगर के साथ खरल करके विचूर्ण तैयार किया जाता है ।
शक्ति (Potency) : किसी दवा का मूल अर्क या विचूर्ण लेकर (जिसमें दवा मूल (Crude) रूप में होती है) ऐल्कोहल के साथ एक खास तरह से झटके (Strokes) लगाकर या मिल्क शुगर के साथ खरल में रगड़ कर उसकी अंदरूनी शक्ति को शक्तिकृत (Potentise) किया जाता है । शक्ति बढ़ाने के लिए मूल मूल दवा व ऐल्कोहल या मिल्क शुगर या डिस्टिल्ड वाटर 1 और 9 के अनुपात में या 1 और 99 के अनुपात में हो सकते हैं । 1 और 9 के अनुपात में बनी दवाइयों की शक्ति (Potency) की संख्या के साथ ‘X’ लगाते हैं । जैसे एकोनाइट 3X. इस तरह से बनी दवाओं को डैसीमल स्केल की दवाएं कहते हैं । 1 और 99 के अनुपात (सैंटेसिमल स्केल) में दवाओं की संख्या के साथ कुछ नहीं लिखते जैसे नक्स वोमिका 30 ।
होम्योपैथिक औषधि का चुनाव कैसे करें ?
पीछे हम कह चुके हैं कि होम्योपैथी एक मूल प्राकृतिक सिद्धांत पर आधारित है। ऐलोपैथी या अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति में लक्षणों का कोई खास महत्व नहीं है। दवा बीमारी के नाम से ही दी जाती है, लक्षण चाहे जो भी हों ।
हम सब जानते हैं कि एक ही प्रकार की बीमारी में अलग अलग रोगियों में लक्षण अलग अलग होते हैं। उदाहरण के तौर पर, साधारण सर्दी को ही लें तो हम पायेंगे कि अलग अलग रोगियों में सर्दी के लक्षण के साथ कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य होगी। जैसे:
- अचानक सर्दी, नाक बहना, छींके आना, गर्म कमरे में रोग लक्षणों का बढ़ना, डर, बेचैनी, प्यास, व बुखार ।
- सर्दी के कारण लगातार छींके ; जो गर्म कमरे में जाने से बढ़ती हैं । नाक से बहुत ज़्यादा पानी की तरह का जलनयुक्त स्राव, सिर दर्द, खाँसी, तथा आवाज बैठ जाना। आंखें सूजी हुई तथा उनसे पानी आना जो कि जलन पैदा नहीं करता । खुली एवं ठंडी जगहों पर अच्छा लगना ।
- नाक से जख्म कर देने वाला स्राव, आंखों तथा नाक में जलन, थोड़ी- थोड़ी देर में थोड़ा पानी पीने की प्यास, बेचैनी व भय, कमजोरी, बुखार, व सिर दर्द के कारण नींद न आना। सभी लक्षण गर्म चीजों के उपयोग से घटते हैं ।
- बहने वाला जुकाम; आंखों से हर समय पानी आए, जिससे आंखें जलती हैं, चेहरा गर्म परंतु रोगी ठंडा रहता है एवम् उसे ठंड लगती है। गर्म कमरे में व शाम को रोग बढ़ता है ।
- कमर में ठंड, सिर व चेहरे पर खिंचाव और भारीपन, छींकें तथा नजला गिरना । नींद सी आयी रहती है। बुखार जो कि बिना पसीने के छूट जाता है और दुबारा आ जाता है, ठंड के साथ जोर का पेशाब आए जिससे सिर हल्का हो जाता है
उपरोक्त 5 रोगियों को देखने से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सर्दी जुकाम के लक्षण अलग – अलग रोगियों में भिन्न होते हैं तथा उन्हें एक ही वर्ग में नहीं रखा जा सकता। होम्योपैथी में इन पांच रोगियों की दवाएं होंगी :
I) एकोनाइट, II) एलियम सीपा, III) आर्सेनिक, IV) यूफ्रेशिया, V) जल्सेमियम
अगर ये पांच मरीज़ किसी एलोपैथिक डॉक्टर के पास जाते तो उनकी एक ही दवा होती । रोग के घटने- बढ़ने या स्राव के प्रकार से उन्हें कोई सरोकार नहीं, उन्हें मतलब है सिर्फ सर्दी-जुकाम से जिसकी सिर्फ एक ही दवा होगी जो जुकाम को ठीक नहीं करेगी बल्कि उसे दबा (suppress) देगी, जिससे कालान्तर में अन्य भयानक रोग पैदा हो सकते हैं।
हर रोगी को एक अलग दवा क्यों दी गयी, इसका कारण है कि वह दवा ऐसी है जिसके लक्षण औषधि परीक्षण (Drug Proving) के समय उस रोगी विशेष के लक्षणों से बहुत कुछ मिलते जुलते उत्पन्न हुए थे । अर्थात् होम्योपैथी में दवा का चुनाव ‘समः सम शमयति ‘ अर्थात् ‘विषस्य विषमौषधम’ (Similia Similibus Curentur) के आधार पर किया जाता है, जबकि ऐलोपैथी में ऐसा नहीं है ।
इलाज बीमारी का नहीं बीमार का
हर बीमारी का मूल कारण जीवनी शक्ति (vital force) का असंतुलन । हम सभी जानते हैं कि जीवनी शक्ति का संतुलन शरीर को स्वास्थ प्रदान करता है जिसके फलस्वरूप सभी संवेदनाओं का आदान प्रदान ठीक तरह से होता । अतः किसी भी कारण से यदि हमारी संवेदनाओं के आदान प्रदान की प्रक्रिया गड़बड़ा जाए (obstruction in the free flow of line of communication in the system) तो हम बीमार हो जाते हैं । इसी संवेदानिक क्रिया की गड़बड़ (interruption of line of communication) को आघात (shock) कहते हैं; जैसे कि चोट लगने से, सड़क पर ब्रेक फेल हो जाने से, किसी निकटतम संबंधी की मृत्यु हो जाने से डूबने से अचानक ठंड लगने, आदि से। अतः, सब बीमारियों का मूल कारण आघात ही है ।
लेकिन आप कहेंगे कि बीमारियों के कई कारण हैं, मैं भी जानता हूँ कि बीमारी उत्पन्न करने एवं उनमें योग देने के कारण (activating & contributing reasons) बहुत से हैं परंतु यदि वे हमारे सूक्ष्म शरीर (dynamic system) को आघात नहीं पहुंचा सकते तो उनकी वजह से कोई बीमारी नहीं होने वाली ।
रूस के वैज्ञानिकों ने हाल ही में पता लगाया है कि निश्चेतक (anaesthesia) देने के बाद रोगियों पर जैसे घातक विष भी कोई असर नहीं करते जबकि यदि घातक् विष किसी भी स्वस्थ मनुष्य को कम से कम मात्रा में भी दिए जाएं तो मृत्यु क्षण भर में हो जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि निश्चेतन (anesthetized) व्यक्ति को ये घातक विष कोई आघात नहीं पहुंचा सकते जिसकी वजह से संवेदनाओं का तारतम्य नहीं टूट पाता। अतः जब तक जीवनी शक्ति (vital force) का संतुलन बना रहे शरीर में कोई बीमारी नहीं आती ।
दिन – प्रतिदिन की साधारण बीमारियों में होम्योपैथी ही क्यों ?
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मूल दवाएं (crude or unpotentised drugs) हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति (natural body defence) कम करती हैं और बीमारी को किसी और रूप में बढ़ावा देती हैं। अब प्रश्न उठता है कि औषधि का बीमारी में क्या महत्व है। औषधियां क्यो दी जाएं ? औषधि का असली कार्य जीवनी शक्ति को संतुलित करना है जिसके फलस्वरूप शरीर में संवेदनिक आदान-प्रदान सुचारू रूप से चलता है अतः हम कह सकते हैं कि रोगी को जीवनी शक्ति ही स्वस्थ रखती है जिसका संतुलित रहना अत्यावश्यक है।
मृत उत्तकों (dead tissues) जैसे गैंग्रीन (gangrene), जहां जीवनी शक्ति नष्ट हो जाती है, पर दवा का भी कोई असर नहीं होता, परंतु फिर भी होम्योपैथिक दवा की सहायता से जीवनी शक्ति संतुलित होकर ऐसे निष्क्रिय उत्तकों (dead tissues) को बाहर निकाल फेंकती है। अतः दवा का कार्य जीवनी शक्ति को संतुलित कर शरीर को स्वस्थ करने में मदद करना है।
हर दुर्घटना (accident) छोटा या बड़ा आघात अवश्य पहुंचाती है, हालांकि आघात का इलाज करने के लिए साधारण नियमों (जैसे कि रोगी को गर्मी पहुंचाना, गर्म कपड़ों से ढक कर रखना, एवं गर्म पानी की बोतल से सेक करना, आदि) का पालन करना जरूरी है, परन्तु होम्योपैथिक औषधि आर्निका 200 की कुछ खुराकें थोड़े-थोड़े अंतर से देने से रोगी बहुत ही जल्दी आराम आ जाता है । अतः आर्निका आघात (shock) की रामबाण दवा है, जो हर घर में होनी चाहिए।
रोगी यदि आघात से अचेत (unconscious) हो जाए तो आर्निका देने से उसकी चेतना जल्दी लौट आती है । मानसिक या शारीरिक आघात की वजह से हुए दर्द आर्निका से ठीक हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर दांत निकालने के बाद की सूजन एवम् दर्द, मोच आ जाना (sprain); हड्डी टूटना (fracture), आदि में भी आर्निका से लाभ होता है ।
जब तक हमारी जीवनी शक्ति, मन एवं इंद्रियां (dynamic system) जिनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, जिन्हें मात्र हम एक शक्ति (force) समझ सकते है, जब तक हमारे भौतिक शरीर में रहते हैं तभी तक ही हम जीवित रहते हैं। इन शक्तियों को जिनको हम सूक्ष्म-शरीर के नाम से पुकारते भी हैं, भौतिक शरीर से निकलते ही हमारा अस्तित्व खत्म हो जाता है जिसे हम मृत्यु के नाम से जानते हैं ।
रोगी का विवरण (case report):
श्रीमति क : 60 बर्षीय बूढ़ी, औरत, दांत निकलवाने के बाद बेहोश हो गई थी; आर्निका 200 की तीन खुराक देने से एकदम ठीक हो गयीं, बाद में भी उन्हें कोई खास परेशानी नहीं हुई ।
रोग को दबाऐं नहीं
रोग को ऐसे ही समझें जैसे घर आंगन में गंदा कूड़ा। उस कूड़े को बाहर फेंक दीजिये। ढकने या दबाने से तो वह सड़ता रहेगा और हानिकारक
बन जायेगा । रोग भी एक कूड़ा है, विष है, विजातीय द्रव्य है (foreign matter) जिसको शरीर से बाहर जाना ही चाहिए। उसे दबा कर शरीर में रखना एक भयंकर भूल है । होम्योपैथी रोग को शरीर से बाहर निकालती है, तथा शरीर निर्मल और निरोग हो जाता है ।
दवा की खुराक कितनी एवं दिन में कितनी बार दें
बीमारी जितनी उग्र हो दवा उतनी ही जल्दी जल्दी देनी चाहिए। आपातकालीन स्थिति (emergency) में हर 10-15 मिनट के अंतर से अन्यथा साधारण रोग में दिन में 2 से 4 बार दें ।
हमेशा याद रखें एक बार दवा का असर शुरू होते ही दवा को अनावश्यक रूप से न देते जाएं अन्यथा दवा के लक्षण मरीज़ में प्रकट होने
लगेंगे।
सिर्फ फ़्लू व ज़्यादा दिन तक रहने वाली बीमारियों जैसे टायफॉएड, न्यूमोनिया आदि में दवा ज़्यादा दिनों तक देनी पड़ सकती है ।
होम्योपैथिक दवा खाली पेट ज़्यादा अच्छा असर करती है। शक्तिकृत दवा (Potentised Medicine) हमेशा मुंह साफ करके जबान पर डाल कर चूसनी चाहिए ।
होम्योपैथिक दवाएं गोलियों, टिकियों या बहुत ही छोटी गोलियों में उपलब्ध हैं। गोलियां आमतौर पर 20 या 20 नं० की ही इस्तेमाल करनी
चाहियें। बच्चों को 2 – 3 गोलियां व बड़ों को 4 – 5 गोलियां एक खुराक में देनी चाहियें।
टिकिया आमतौर पर 1 ग्रेन (grain) में उपलब्ध हैं। बच्चों को 1 ग्रेन की एक या दो टिकिया व बड़ों को 4 टिकिया तक एक खुराक में लेनी पर्याप्त हैं । शिशुओं को गोलियां या टिकिया पानी में घोल कर दी जा सकती हैं ।
मूल अर्क (Mother Tincture) जिसे Q के निशान से जाना जाता है । 1 या 2 बूंद से 10 – 15 बूंद तक आवश्यकतानुसार दिया जा सकता है।
दवा की शीशियां ठंडी व अंधेरी जगह पर, तेज खुश्बू वाली चीजों से दूर, अच्छी तरह ढक्कन लगा कर रखनी चाहियें ।
होम्योपैथिक दवाएं हमेशा किसी विश्वसनीय दुकान से ही खरीदें । क्योकि दवा ठीक न होने से रोग ठीक नहीं होगा, रोगी का कष्ट बढ़ता जाएगा और आप समझेंगे कि होम्योपैथी बेकार है ।
दवा लेने के आधा घंटा पहले व आधा घंटा बाद तक कुछ न खायें। कुछ दवाओं के साथ प्याज, लहसुन, कॉफी आदि का परहेज जरूरी है। खाने-पीने में शाकाहारी भोजन सर्वोत्तम है। यदि किसी ख़ास वस्तु के खाने से परेशानी होती हो तो उसे न खाएं।
मियाज्म (Miasms)
जब रोग का इलाज प्राकृतिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं किया जाता या किसी भी चिकित्सा पद्धति से दबा दिया जाता है, तब यही रोग आगे चलकर व अगली पीढ़ी में और अधिक उग्र रूप धारण कर लेता है। इसलिए ऐसे रोगों को हम पुराने रोग (chronic diseases) कहते हैं । पुराने रोग मियाज्म के कारण ही होते हैं। यहां पर हम मियाज़्मस की थोड़ी जानकारी दे रहे हैं ।
मियाज़्म : कुदरती तौर से बीमारियां तीन प्रकार के मियाज्म के कारण होती हैं, जिन्हें हम होम्योपैथी में सोरा (psora), सिफिलिस (syphilis), व साइकोसिस (sycosis) के नाम से जानते हैं ।
सोरा : मन में आइ अहितकारी ताकतों (abnoxious agents) के कारण हर तरह की मानसिक उत्कट इच्छा (mental itch) के फलस्वरूप जो विकार उत्पन्न होते हैं, उन्हें सोरिक (psoric) कहा जाता है ।
सिफिलिस : सोरा के हमले के बाद आई अतिरिक्त सूक्ष्म ग्राहिता (over sensitivity) के बाद स्पर्श (touch) से यह रोग फैलता है; ख़ासकर सहवास आदि के बाद। इसमें मानसिक रूप से व्यक्ति विध्वंसक (destructive) हो जाता है । और इच्छा शक्ति का ह्रास होता है ।
साइकोसिस : यह रोग भी सोरा के हमले के बाद ही होता है। और स्पर्श से फैलता है, ख़ासकर लैंगिक कुकृत्यों से । इस रोग में मानसिक रूप से बुद्धि हास होता है और व्यक्ति विशेष में हर चीज पाने व भोगने की लालसा बढ़ती जाती है ।
चेतावनी (Warning) : यदि शरीर में रोग जन्य परिवर्तन (Pathological Changes) हो रहे हों या हो चुके हों तो उच्च शक्ति की औषधियां सेवन नही करनी चाहिएं। इलाज हमेशा किसी कुशल चिकित्सक की देख रेख में ही होना चाहिए। दवा का चुनाव ठीक है या नहीं यह जानने के लिए चुनी गई दवा को किसी अच्छे मेटेरिया मैडिका में ध्यान पूर्वक पढ़े।