कार्बो वेजिटेबिलिस | Carbo Vegetabilis
क्षयकारी रोगों के दुष्प्रभाव के लिये प्रयुक्त की जाने वाली औषधि, चाहे रोगी युवा हो या वृद्ध (सिन्को, फास्फो, सोरा); ऐसे रोगी जिनकी जीवनी शक्ति दुर्बल हो चुकी हो या नष्ट होने वाली हो । ऐसे व्यक्ति, जो किसी पूर्व रोगावस्था के क्षयकारी दुष्प्रभाव से कभी पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाये; बचपन में रोमान्तिका अथवा काली खाँसी होने के बाद अब तक दमा से मुक्ति नहीं मिली; मंदिरा के अपव्यवहार से अजीर्ण की शिकायत बनी रहती है; बहुत समय पहले लगी हुई चोट का कुफल अब तक भोगना पड़ रहा है; आंत्रिक ज्वर के दुष्प्रभाव से कभी भी मुक्ति नहीं हो पाया (सोरा) ।
ऐसे रोग, जिनकी उत्पत्ति कुनीन का सेवन करने, विशेष कर सविराम ज्वरों की दबी हुई अवस्था के फलस्वरूप हुई हो; पारद के अपव्यवहार से, नमक का सेवन करने से तथा नमकीन मांस खाने से हुई हो; दूषित मछली, मांस अथवा वसा पदार्थों के सेवन से हुई हो; शरीर अत्यधिक गरमा जाने परिणामस्वरूप हुई हो (एण्टि-क्रूड) ।
जैवी द्रव्यों के नष्ट हो जाने दुष्प्रभाव (कास्टि); श्लेष्म कलाओं की दोषपूर्ण अवस्थाओं के फलस्वरूप होने वाला रक्तस्राव (सिन्को, फास्फो) ।
स्मरणशक्ति की दुर्बलता तथा मन्द विचारशक्ति ।
नकसीर – प्रतिदिन दौरे के रूप में फूटती है, कई सप्ताहों तक गतिशील रहती है, परिश्रम करने पर अधिक रक्तस्राव होता है; रक्तस्राव से पूर्व तथा उसके बाद चेहरा पीला शरीर के किसी भी श्लेष्म-द्वार से होने वाला रक्तस्त्राव; ऐसे व्यक्तियों में जिनका शरीर जीर्ण-जर्जर और दुर्बल हो चुका है; दुर्बल ऊतकों से रक्त टपकता रहता है; जीवनी शक्ति प्रायः समाप्त । चेहरा हिप्पोक्रेट जैसा (मुर्झाया हुआ); अत्यधिक पीला, भूरा-पीला, हरा-हरा, ठण्डा होने के साथ ठण्डा पसीना रक्तस्राव के बाद । दान्तों का ढीलापन, मसूडों से सहज ही रक्तस्राव होने लगता है।
रोगी उन वस्तुओं के लिये लालायित रहते हैं जो उन्हें रुग्ण बना देती हैं; पुराने पियक्कड़ों को व्हिस्की या ब्रण्डी पीने की उत्कट इच्छा रहती है; उदर के चारों ओर ढीलाढाला वस्त्र पसंद करते हैं ।
पाचन दौर्बल्य सादा भोजन नहीं पचता; आमाशय एवं आन्तों के अन्दर विपुल बायुसंचय हो जाता है, जो लेटने पर और अधिक बढ़ जाता है, खाने-पीने के बाद ऐसा लगता है जैसे आमाशय फट जायेगा; लम्पटेपन, बिलम्बित रात्रिभोजन एवं गरिष्ठ खाद्यान्नों का दुष्प्रभाव । डकारें आने पर कुछ समय तक आराम महसूस होता है।
शिरा-प्रणाली से सम्बद्ध रोगों की प्रमुखता (सल्फ) अपूर्ण आक्सीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न लक्षण (आज-नाइ) ।
अल्प केशिका संचार के कारण त्वचा नीली पड़ जाती है और हाथ-पैर ठण्डे हो जाते हैं; जैवी शक्ति लगभग समाप्त; चाहता है कोई उस पर निरन्तर पंखा झलता रहे।
कण्ठ की फर्कशता शाम की नमीदार हवा में, तथा गर्म, भीगे मौसम में बढ़ती है; अधिक जोर देने पर पूर्ण वाणीलोप (प्रातः कालीन वृद्धि – कास्टि) । अंगों की शीतलता के कारण बहुधा नींद खुल जाती है तथा घुटनों की ठण्डक से रात भर परेशान रहता है (एपिस) ।
निरन्तर निरंकुश रूप में मलत्याग होता रहता है जिससे गन्ध आती है, उसके बाद जलन होती है; कोमल मल भी कठिनाई के साथ बाहर निकलता है (एलूमि) ।
रोग की अंतिम अवस्था में जब अत्यधिक ठण्डा पसीना होता है, श्वास और जिह्वा ठण्डी रहती है, वाणी लुप्त हो जाती है तो यह औषधि प्राणों को बचा सकती है।
सम्बन्ध –
- काली-कार्बो पूरक औषधि है।
- सुनिर्वाचित औषधियों के प्रति रोगी में सुग्रह्यता का अभाव पाया जाता है (ओपि, बैले) ।
- पुराने पियक्कड़ों को होने वाले फुफ्फुसपाक की उपेक्षित अवस्थाओं में सिम्को और प्लम्ब से, तथा ढीले बलगम को निकाल फेंकने की अक्षमता के फलस्वरूप प्रकट होने वाली पक्षाघात की आशंका में एण्टि-टार्ट से तुलना कीजिये ।
- ओपियम – सुनिर्वाचित औषधियां देने के बाद भी रोगी में प्रतिक्रियात्मक शक्ति का अभाव पाया जाता है और वे रोगी को पूर्ण रोगमुक्त करने में असफल सिद्ध होती हैं।
- सहज रक्तस्रावी व्रणों में (फास्फोरस) ।
- पल्साटिला – गरिष्ठ भोजन करने तथा पेस्ट्री खाने का दुष्प्रभाव ।
- सल्फर- तीखी गंध से युक्त ऋतुस्राव एवं स्तनों का विसर्प ।
रोगवृद्धि – मक्खन, शूकरमांस, गरिष्ठ भोजन खाने से; कुनीन की खाल और पारद के अपव्यवहार से जोर-जोर से गाने और पढ़ने के कारण, गर्म, नमीदार मौसम में ।
रोगह्रास – डकारें आने से पंखा झलते रहने से ।