स्त्री रोगों का एक्युप्रेशर से उपचार
स्त्रियों के विशेष रोगों से अभिप्राय स्त्रियों के वे रोग हैं जो उनके प्रजनन अंगों (female reproductive organs) से सम्बन्धित हैं। ये अंग हैं डिम्ब – ग्रन्थियाँ (ovaries), गर्भाशय नलिकाएँ (uterine tubes अर्थात fallopian tubes), गर्भाशय ( uterus) तथा योनि (vagina) इत्यादि । यह अंग पेट के निचले भाग अर्थात पेडू-गुहा (pelvic-cavity) में स्थित होते हैं।
डिम्बग्रन्थियाँ (Ovaries)
अण्डाशय अर्थात डिम्बग्रन्थियाँ (ovaries) दो होती हैं और उनकी आकृति बादाम की भाँति होती है । साधारणतया प्रत्येक डिम्बग्रन्थि की लम्बाई 2.5 सेंटीमीटर से 3.5 सेंटीमीटर, चौड़ाई लगभग 2 सेंटीमीटर तथा मोटाई लगभग एक सेंटीमीटर तक होती है। ये गर्भाशय के दोनों ओर गर्भाशय नलिकाओं के नीचे स्थित होती हैं। इनमें अपरिपक्व डिम्ब होते हैं। मासिकधर्म आने की आयु से पहले भी ये डिम्ब अर्थात अण्डे (ovum eggs) डिम्बग्रन्थियों में स्थित होते हैं पर अपरिपक्व होते हैं। मासिकधर्म आने की अवस्था से लेकर मासिकधर्म बन्द होने की अवस्था (menopause) तक हर महीने डिम्बग्रन्थियों में से एक अण्डा पक कर अर्थात डिम्बकरण (ovulation) होकर किसी एक गर्भाशय नलिका (uterine tube) में पहुँचता है।
पुरुष तथा स्त्री द्वारा संभोग के समय जब पुरुष का शुक्राणु (sperm) गर्भाशय नलिका में पहुँचता है तो यहाँ डिम्ब तथा शुक्राणु के सम्मिश्रण (fusion) से गर्भाधान (fertilization) होता है। एक विस्मयकारी तथ्य यह है कि डिम्बकरण (ovulation) के समय से ही गर्भाशय ( uterus ) गर्भधारण करने के लिए तैयार हो जाता है अर्थात वहाँ कुछ रक्त तथा आवश्यक तत्त्व इकट्ठे हो जाते हैं ताकि संभावित शिशु का गर्भाशय में पोषण किया जा सके। निषेचित डिम्ब गर्भाशय नलिका से लगभग एक सप्ताह के समय तक गर्भाशय में पहुँच जाता है जहाँ फिर बच्चे का रूप धारण करना शुरू कर देता है। जब गर्भ ठहरता है तो गर्भाशय का द्वार बन्द हो जाता है और उसमें बच्चा पलना शुरू हो जाता है।
गर्भाशय नलिकाएँ (Fallopian tubes)
गर्भाशय के ऊपरी भाग की ओर दोनों तरफ एक- एक गर्भाशय नलिका (uterine tube जिसे fallopian tube कहते हैं) होती है जोकि गर्भाशय गुहा से बिल्कुल मिली होती है। प्रत्येक गर्भाशय नलिका की लम्बाई लगभग 10 सेंटीमीटर होती है। पुरुष के शुक्राणु योनि के मार्ग द्वारा गर्भाशय से होते हुए गर्भाशय नलिका में पहुँचते हैं। योनि वह मार्ग है जो शरीर के बाहरी भाग से शुरू होकर गर्भाशय में खुलता है।
औरत की किसी एक डिम्बग्रन्थि से डिम्ब पंक कर गर्भाशय नलिका के झिल्लीदार भाग से प्रविष्ट होकर गर्भाशय नलिका में पहुँचता है जहाँ डिम्ब तथा शुक्राणु का सम्मिश्रण होता है । गर्भाशय नलिकाओं का प्रमुख कार्य डिम्ब (ova) का शुक्राणु (sperm) से संयोजन कराकर कुछ दिन अपने पास रखना तथा उसके पश्चात गर्भाशय तक पहुँचाना है।
इस प्रकार योनि गर्भाशय, डिम्बग्रन्थियों तथा गर्भाशय नलिकाओं का आपस में अटूट सम्बन्ध है । अविवाहिता स्त्रियों की भी डिम्बग्रन्थियाँ प्रतिमास एक डिम्ब गर्भाशय नलिकाओं तक पहुँचाती हैं। ऐसी स्त्रियाँ जो किसी पुरुष से संभोग नहीं करती उनका डिम्ब शुक्राणु के बिना अनिषेचित रह जाता है और गर्भाशय से होकर मासिकधर्म के दिनों में शरीर से बाहर निकल जाता है।
गर्भाशय ( Uterus)
गर्भाशय (uterus) की आकृति नाशपाती की भाँति होती है। आकार में साधारणतया यह 7.5 सेंटीमीटर लम्बा, 5 सेंटीमीटर चौड़ा तथा इसके परदे ( walls) लगभग 2.5 सेंटीमीटर चौड़े होते हैं। वजन में यह प्रायः 30 से 40 ग्राम तक होता है। गर्भाशय के पीछे मलाशय तथा सामने मूत्राशय होता है। नीचे की तरफ यह योनि से मिला होता है और इसके दायें तथा बायें गर्भाशय नलिकाएँ होती हैं। गर्भाशय का मुख्य कार्य गर्भ धारण करना है अर्थात गर्भस्थ शिशु की पालना ।
गर्भाशय अन्दर से खोखला तथा लचीले तन्तुओं का बना होता है। अतः ज्यों-ज्यों गर्भजीव का आकार बढ़ता जाता है, गर्भाशय का आकार भी बढ़ता जाता है। गर्भकाल पूर्ण होने पर प्रसव होता है जिससे शिशु योनिमार्ग द्वारा बाहर आता है। प्रसव के कुछ समय पश्चात गर्भाशय फिर अपनी प्रारम्भिक अवस्था में आ जाता है।
मासिकधर्म (Menstruation)
मासिकधर्म, ऋतुचक्र या माहवारी चक्र (menstrual cycle) की ठीक अवधि 28 दिन होती है प्राचीन भारतीय शास्त्रों के अनुसार चन्द्रमा का स्त्री के गर्भाशय से साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। चन्द्रमास के 28 दिन होते हैं । उसी अनुसार दो मासिकधर्मों के बीच भी 28 दिन का अन्तर होता है, इसमें रक्तस्त्राव वाले 4-5 दिन भी सम्मिलित होते हैं ।
इस अवधि में पहले 14 दिन डिम्बकरण (ovulation) से पूर्व तथा आखिरी 14 दिन डिम्बकरण के बाद के होते हैं। ऋतुचक्र के अनुसार हर महीने लगभग 21 वें दिन के आसपास गर्भाशय (uterus ) निषेचित डिम्ब के आगमन के लिए पूर्णरूप से तैयार हो जाता है। निषेचित डिम्ब की स्थिति में गर्भ ठहर जाता है पर अगर डिम्ब अनेषित रह जाए तो गर्भ नहीं ठहरता और गर्भाशय द्वारा पूर्व रूप से की सब तैयारियां व्यर्थ जाती हैं।
ऐसी स्थिति में फिर आर्तव काल (menstrual period) शुरू हो जाता है और गर्भाशय में भावी शिशु के पोषण के लिए जो रक्त जमा हो जाता है वह योनि के मार्ग से बाहर चला जाता है। यही रक्त मासिकधर्म, ऋतुधर्म, रज आना, कपड़े आना या माहवारी कहलाता है।
मासिकधर्म लगभग चार-पाँच दिन का होता है। अगर इससे अधिक समय रहे तो हॉरमोन की असमानता (hormone imbalance) तथा रोग के लक्षण समझने चाहिए। मासिकधर्म नारी शरीर की एक स्वाभाविक क्रिया है, यह न ही कोई रोग है तथा न ही कोई अपवित्र कार्य । इसलिए इसे “धर्म” का नाम दिया गया है। सामान्य तथा नियमित मासिकधर्म औरत के अच्छे स्वास्थ्य का सूचक है क्योंकि ऐसी अवस्था में उसके समस्त प्रजनन अंग अपना कार्य ठीक प्रकार से कर रहे होते हैं।
मासिकधर्म से एक दो दिन पहले या मासिकधर्म के दिनों में प्रायः काफी औरतों को हलकी थकान, स्तनों में कुछ सूजन तथा अनिद्रा आदि अनुभव होती है पर ये रोग नहीं कहे जा सकते। मासिकधर्म बन्द होने के साथ फिर बिल्कुल सामान्य अवस्था हो जाती है और थकावट, सूजन या अनिद्रा आदि के लक्षण नहीं रहते।
यौवनारंभ (Puberty) तथा रजोनिवृत्ति (Menopause)
जब लड़की शैशवकाल से यौवनकाल में प्रवेश करती है तो 10 से 16 वर्ष की आयु में किसी समय भी मासिकधर्म (menstruation) प्रारम्भ हो सकता है। इस स्थिति को रजोदर्शन (menarche) कहते हैं। गर्म जलवायु के क्षेत्रों में यह अपेक्षाकृत जल्दी तथा ठंडे प्रदेशों में 14 – 16 वर्ष की आयु में होता है। मासिधर्म लगभग 35 वर्ष की अवधि तक आता रहता है अर्थात 45 से 50 वर्ष की आयु के मध्य मासिकधर्म हमेशा के लिए बन्द हो जाता है। इस अवस्था को रजोनिवृत्ति (menopause) कहते हैं।
हॉरमोन (Female hormones) का निर्माण
डिम्बग्रन्थियों (ovaries) का डिम्ब बनाने के अतिरिक्त एक अन्य प्रमुख कार्य उत्तेजक रस हॉरमोन (harmones) बनाना है। हारमोन एक रासायनिक पदार्थ होता है जो रक्त प्रणाली द्वारा एक अंग से दूसरे अंग तक पहुँच कर उन्हें आवश्यक उत्तेजना प्रदान करके उनकी क्रिया को सामान्य बनाए रखता है। डिम्बग्रन्थियाँ दो प्रमुख हॉरमोन बनाती हैं जिन्हें एस्ट्रोजेन (oestrogen) तथा प्रोजेस्ट्रॉन (progesterone) कहते हैं। वास्तव में ये दोनों हारमोन शरीर की प्रमुख ग्रन्थि पिट्यूटरी ग्रन्थि (pituitary gland) के नियन्त्रण में ही बनते हैं ।
एस्ट्रोजेन तथा प्रोजेस्ट्रॉन हॉरमोन नारी शरीर के लिए बहुत ही जरूरी हॉरमोन हैं। इनके प्रभाव से स्त्रियों के जननांग विकसित होते हैं। स्त्रियों की त्वचा तथा विचारबुद्धि का स्वरूप भी इन्हीं हॉरमोन के कारण बनता है। ये हॉरमोन स्त्री का दूध बनाने में भी सहायता करते हैं। इनकी कमी के कारण मुँह पर कील-मुहाँसे, छाइयाँ, झुरियाँ तथा बाल, शरीर दुर्बल, नितम्ब पतले तथा सुकड़े से तथा स्तन बिल्कुल छोटे तथा सुकड़े से रहते हैं ।
बाल्यकाल से लेकर रजोनिवृत्ति तक इन हॉरमोन का निर्माण काफी मात्रा में होता है। प्रोजेस्ट्रान के प्रभाव के कारण गर्भाशय निषेचित डिम्ब को ग्रहण करने के लिए तैयार होता है तथा इस हॉरमोन के प्रभाव के कारण ही मासिकधर्म रुकता है। ये हॉरमोन गर्भाशय में शिशु की वृद्धि और उसके स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायता करते हैं।
पिट्यूटरी ग्रन्थि (pituitary gland) एक अन्य महत्त्वपूर्ण हॉरमोन प्रोलैक्टिन (prolactin) भी बनाती है जिसके कारण स्त्रियों के स्तनों से दूध का बहाव (milk secretion) होता है । थाइरॉयड (thyroid gland) का भी इस क्रिया में काफी योगदान होता है। नारी शरीर की स्वस्थता तथा सुन्दरता में थाइरॉयड ग्रन्थि के हॉरमोन का संतुलन बहुत आवश्यक है। अगर इस हॉरमोन का संतुलन बिगड़ जाए तो आँखों के नीचे काले से गड्ढे, धब्बे, छाइयाँ तथा झुरियाँ पड़ जाती हैं तथा सिर के बाल कमजोर होकर गिरने लग जाते हैं। ऋतुस्राव के दिनों में सामान्य से अधिक खून जाता है।
प्रजनन अंगों सम्बन्धी रोग
स्त्रियों के प्रजनन अंगों सम्बन्धी अनेक रोग हैं पर यहाँ केवल उन्हीं रोगों का वर्णन किया जाएगा जोकि स्त्रियों के सामान्य रोग हैं तथा एक्युप्रेशर पद्धति द्वारा आसानी से ठीक हो सकते हैं।
प्रथम मासिकधर्म में देरी या मासिकधर्म न आना (Amenorrhea)
पहला मासिकधर्म अर्थात ऋतुस्राव होना विशेषतः बालिकाओं के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। यह प्रायः 10 से लेकर 16 वर्ष की आयु तक किसी समय भी प्रारम्भ हो सकता है। ग्रीष्मप्रधान इलाकों में रहने वाली और पौष्टिक तथा आहार में मांसयुक्त वस्तुएँ अधिक खाने वाली लड़कियों को मासिकधर्म अपेक्षाकृत जल्दी आरम्भ हो जाता है।
मासिकधर्म न आना दो प्रकार का होता है। पहली अवस्था को ‘प्राथमिक अनार्तव’ (Primary Amenorrhea) कहते हैं अर्थात 16-17 वर्ष की आयु तक मासिकधर्म प्रारम्भ नहीं हुआ। दूसरी अवस्था को ‘द्वितीयक अनार्तव’ (Secondary Amenorrhea) कहते हैं अर्थात मासिकधर्म प्रारम्भ होकर कुछ महीनों बाद बन्द हो गया हो। गर्भावस्था (during pregnancy) तथा प्रसव के बाद बच्चे को दूध पिलाने के महीनों में मासिकधर्म नहीं आता।
रजोनिवृत्ति (menopause) की अवस्था में यह प्राकृतिक रूप में हमेशा के लिए बन्द हो जाता है। अतः ऐसी अवस्थाओं को रोग नहीं समझना चाहिए।
मासिकधर्म न आने के कई कारण हो सकते हैं यथा – जनन अंगों का न होना, जनन अंगों का पूरी तरह विकसित न होना या विकृत होना, गर्भाशय ग्रीवा (cervix) तथा योनि (vagina) आदि का असामान्य होना जिस कारण मासिकधर्म का रक्त बाहर न आ सकने के कारण गर्भाशय में ही एकत्र होना शुरू हो जाता है, कई बार श्रोणि (pelvic) में कोई चोट लगने तथा ऑपरेशन के कारण भी योनि तथा ग्रीवा बन्द हो जाते हैं, कई बार प्रजनन अंगों की किसी बीमारी तथा किसी अन्य बीमारी जिसमें रोगी की शारीरिक क्षमता कम हो गई हो, ऐसी अवस्था में भी ऋतुस्त्राव नहीं आता। रक्त की कमी, शरीर में असामान्य तथा अपरिपक्व श्वेत रक्त सैलों की अधिकता, मधुमेह, क्षयरोग, जिगर तथा हृदय की कई बीमारियों तथा गुर्दों की सूजन आदि की स्थिति में ऋतुस्त्राव नहीं होता ।
अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियों (endocrine glands) विशेषकर पिट्यूटरी ग्रन्थि, थाइरॉयड ग्रन्थि तथा आड्रेनल ग्रन्थियों द्वारा पर्याप्त मात्रा में हॉरमोन न बनाने के कारण भी मासिकधर्म का दोष हो जाता है। मानसिक तनाव, गर्भ ठहरने का डर, कई बीमारियों तथा वातावरण के परिवर्तन के कारण भी यह रोग हो जाता है। अगर इस रोग का शीघ्र इलाज न कराया जाए तो कई रोग लगने के साथ संतान पैदा करने में भी बाधा आ सकती है।
अनियमित मासिकधर्म (Irregular menstruation) तथा कम ऋतुस्त्राव
मासिकधर्म प्रारम्भ होने की अवस्था में पहले वर्ष कई लड़कियों को नियमित रूप से हर मास ऋतुस्त्राव नहीं होता है। कई बार कुछ महीने ऋतुस्त्राव आता ही नहीं और उसके बाद पुनः शुरू हो जाता है। मासिकधर्म का आदर्श प्राकृतिक चक्र 28 दिन का माना गया है पर यह 28 दिन से पहले अर्थात 21 वें दिन ही शुरू हो जाता है और कइयों को यह 35-36 दिन तक नहीं होता । कभी-कभी अनियमित होने के अतिरिक्त कुछ स्त्रियों को बहुत कम ऋतुस्त्राव होता है। उन्हें 4 या 5 दिन की साधारण अवधि की अपेक्षा केवल 2 या 3 दिन ही मासिकधर्म आता है और वह भी बहुत ही कम मात्रा में कम ऋतुस्त्राव होना भी रोग का लक्षण है।
मानसिक उत्तेजना, जलवायु के परिवर्तन तथा शरीरिक कामकाज की परिस्थितियों का भी औरतों के ऋतुचक्र पर प्रभाव पड़ता है। उन औरतों को भी मासिकधर्म ठीक प्रकार नहीं आता जिनके भोजन का पाचन ठीक प्रकार नहीं होता और जिनकों लगातार कब्ज रहती है, जो स्त्रियाँ या तो बिल्कुल परिश्रम नहीं करती या शारीरिक क्षमता से अधिक परिश्रम करती हैं, जो अत्यन्त विषय भोग करती है, दिन में सोई रहती हैं तथा रात्रि भर जागती रहती हैं, जो अधिक मिठाइयाँ और अधिक खट्टे पदार्थ खाती हैं, अधिक ठंडे तथा अधिक गर्म पदार्थों का सेवन करती हैं, तथा जो काफी मोटी होती हैं, जिनके शरीर का रक्त काफी गाढ़ा होता है या जिनके शरीर में रक्त बहुत कम होता है, जो हमेशा शोक तथा चिन्ता में डूबी रहती हैं तथा जिनका रज बहुत कम बनता है। जनन अंगों में किन्हीं विकारों तथा हॉरमोन की न्यूनता या असमानता के कारण भी मासिकधर्म अनियमित रहने लगता है।
जिन औरतों को मासिकधर्म अनियमित रूप से आता है या बहुत कम आता है, उनका मासिकधर्म के दिनों में मन काफी उदास रहता है, प्रायः सिर और कमर में दर्द तथा आँखों के आगे दिन में कई बार अंधेरा सा छा जाता है, स्वभाव में चिड़चिड़ापन, हाथों तथा पैरों में जलन तथा नाभि में दर्द अनुभव होता है और भोजन में अरुचि रहती है। अनियमित मासिकधर्म के कारण कई स्त्रियों के स्तन सामान्य से अधिक बढ़ जाते हैं तथा उनमें दर्द रहने लगता है या फिर कई स्त्रियों के स्तन सामान्य आकार से छोटे हो जाते हैं।
वेदनामय ऋतुस्त्राव (Dysmenorrhea painful periods)
थोड़ी बहुत असुविधा, मामूली परेशानी तथा हलका सा कष्ट ऋतुस्त्राव के प्राकृतिक लक्षण हैं पर जब यह प्राकृतिक क्रिया काफी वेदना का रूप धारण कर ले तो यह रोग का सूचक है। ऐसी अवस्था को ऋतु या वेदनामय ऋतुस्त्राव (dysmenorrhea) कहते हैं। इस रोग में मासिकधर्म के समय असहनीय दर्द होता है। इस रोग में कुछ स्त्रियों को मासिकधर्म के पहले दिन शूल शुरू होता है और लगभग 10-12 घंटे रहता है। यह प्रायः पहली बार मासिकधर्म शुरू होने की अवस्था से लेकर 25 वर्ष की आयु तक की स्त्रियों को होता है। स्त्री रोगों में यह एक प्रमुख रोग है।
कुछ स्त्रियों को यह शूल जनन अंगों में किसी सूजन, लम्बी और निरन्तर चिन्ता, संभोग के समय पीड़ा (sexual pressure), निष्क्रियता (sedentary existence), व्यायाम का अभाव तथा पुरानी कब्ज के कारण होता है। ऐसा देखा गया है कि ज्यों-ज्यों औरत की आयु बढ़ती जाती है त्यों-त्यों ऋतुशूल या तो बहुत कम हो जाता है या फिर समाप्त हो जाता है।
अतिरजः – अत्याधिक ऋतुस्त्राव होना (Menorrhagia-unusually heavy periods)
मासिकधर्म की अवधि समस्त स्त्रियों में बराबर नहीं होती। यद्यपि मासिकधर्म की श्रेष्ठ अवधि 4 या 5 दिन की मानी गई है पर अधिकांश स्त्रियों को साधारण रूप में भी केवल ३ दिन तक तथा कइयों को 7 दिन तक ऋतुस्त्राव आता रहता है। प्राकृतिक नियम के अनुसार मासिकधर्म के दूसरे तथा तीसरे दिन शेष दिनों की अपेक्षा अधिक मात्रा में रक्त आता है। अगर सामान्य अवधि से अधिक दिनों तक ऋतुकाल रहे या सामान्य मात्रा से अधिक रक्त जाता रहे तो इसे अतिरजः या अत्यार्तव (menorrhagia ) कहते हैं ।
अतिरजः वस्तुतः एक लक्षण है। इसको दूर करने के लिए रोग का असली कारण ढूंढना आवश्यक है। लगभग 5 से 10 प्रतिशत लड़कियों को किशोरावस्था में अधिक लम्बे समय तथा अधिक मात्रा में रक्त जाता रहता है। ऐसा प्रायः हॉरमोन की अधिक सक्रियता के कारण होता है। बच्चे को जन्म देने तथा गर्भपात के बाद भी प्रायः कुछ समय तक ऋतुस्त्राव अनियमित तथा सामान्य से अधिक मात्रा में आता रहता है। गर्भाशय में किसी विकृतिं तथा फोड़े आदि के कारण भी अधिक ऋतुस्त्राव हो सकता है। अगर गर्भाशय में रखी कोई वस्तु ठीक न बैठे तो भी अधिक रक्तस्त्राव हो सकता है। ऐसी स्थिति में किसी योग्य लेडी डाक्टर को दिखाना अधिक उपयुक्त है। अधिक ऋतुस्राव वाली रोगिनी को पूर्ण आराम करना चाहिए, अधिक उठना-बैठना, चलना-फिरना तथा शारीरिक परिश्रम नहीं करना चाहिए।
मासिकधर्म से पहले वेदना (Premenstrual tension)
कई स्त्रियों को मासिकधर्म शुरू होने से 7 से 10 दिन पहले ही एक प्रकार का तनाव, खिंचाव यथा दर्द: शुरू हो जाता है जो केवल ऋतुस्राव शुरू होने के कुछ समय बाद ही समाप्त होता है। अभी तक यह पूर्णरूप से निश्चित नहीं हो सका है कि यह दर्द क्यों होता है। कई स्त्रियों को यह तनाव व दर्द कष्टकर संभोग (dyspareunia-painful sexual intercourse) के कारण होता है।
इस रोग में प्रायः उत्साहहीनता, कम्पन, चिड़चिड़ापन, योनि में जलन सी मामूली से लेकर काफी सिरदर्द, छाती में दर्द तथा पेट व शरीर के कई दूसरे अंगों का थोड़ा सा फूल जाना कुछ सामान्य लक्षण हैं। ऐसा समझा जाता है कि इस प्रकार का फुलाव व सूजन शरीर में क्षार (salt) की मात्रा अधिक हो जाने के कारण होती है। जिन स्त्रियों को इस रोग की अवस्था में शरीर में अधिक फुलाव प्रतीत हो उन्हें आगामी मासिकधर्म से कुछ दिन पहले नमक का प्रयोग बिल्कुल बन्द कर देना चाहिए।
श्वेत प्रदर (Leucorrhoea)
इस रोग में ऋतुस्त्राव से कुछ दिन पहले या कुछ दिन बाद योनि से बिना रक्त के पानी सा जाता है जोकि काफी असुविधाजनक होता है। यह कई प्रकार का होता है – तरल और गाढ़ा भी होता है। कई स्त्रियों में अण्डे के श्वेत अंश के समान गाढ़ा, चिकना, चिपचिपा, कइयों हरापन लिए हुए पीला स्त्राव तथा कइयों में यह गाढ़े पीले रंग का होता है। श्वेत प्रदर से आमतौर पर दुर्गन्ध आती है। श्वेत प्रदर अचानक ही योनि से बहने लगता है जिससे जँघाएँ भीग जाती हैं। लगातार स्त्राव होने के कारण जँघाओं के ऊपरी भाग में जलन तथा खुजली शुरू हो जाती है। इस रोग में रोगिनी को सिर में चक्कर आने शुरू हो जाते हैं, हाथ-पैर दुखने लगते हैं तथा काफी कमजोरी अनुभव होती है। रोग की स्थिति में विवाहित महिलाएँ गर्भ धारण नहीं कर पाती ।
सामान्यतः यह रोग अधिक संभोग करने, पूरी तरह सफाई न रखने, योनि (vagina) तथा गर्भाशय ग्रीवा (cervix) में संक्रमण (infection) तथा शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता की कमी आ जाने के कारण हो जाता है। कई अन्य रोगों तथा रक्तहीनता (anaemia) तथा रूमैटाइड सन्धिशोथ (rheumatoid arthritis) के कारण भी श्वेत प्रदर का रोग हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह रोग उन स्त्रियों को भी हो जाता है जिनका ध्यान हमेशा अधिक विषय-वासना में रहता है, जो शारीरिक परिश्रम बिल्कुल नहीं करती तथा जो खटाई तथा मांसयुक्त पदार्थों का अधिक सेवन करती है।
गर्भाशय-प्रदाह (Metritis – inflammation of the uterus)
यह रोग साधारणतः प्रसव तथा गर्भपात के बाद होता है। प्रसव के बाद जब गर्भाशय अपनी पहली स्वाभाविक अवस्था में नहीं आता और पूरी तरह संकुचित नहीं हो पाता तो गर्भाशय का भाग काफी बोझल प्रतीत होने लगता है और उसमें हमेशा दर्द रहने लगता है। यह रोग प्रायः अत्यधिक सहवास करने के कारण भी हो जाता है। इसके साथ प्रायः तेज बुखार तथा शरीर में दर्द भी रहने लगता है।
डिम्बग्रन्थि प्रदाह (Ovaralgia – pain in an ovary)
किसी एक या दोनों डिम्बग्रन्थियों में दर्द को डिम्बग्रन्थि-प्रदाह कहते हैं। यह रोग प्रायः अधिक ठंड लगने, ऋतुस्त्राव के दिनों में संभोग करने तथा पेट के निचले भाग पर चोट लगने इत्यादि के कारण होता है। रोग की अवस्था में पेट के इस भाग पर स्पर्श करने से भी दर्द अनुभव होता है। कभी-कभी दर्द डंक चुभने जैसा प्रतीत होता है।
योनि प्रदाह (Vaginitis – Inflammation of the vagina)
इस रोग में योनि में सूजन, जलन तथा दर्द हो जाता है। योनि का भाग प्रायः गर्म रहता है। यह रोग प्रायः संक्रमण (infection), चोट लगने तथा अत्याधिक संभोग करने से होता है। डाक्टरों की यह भी राय है कि संतान निरोधक गोलियाँ अधिक खाने, चीनी, मिठाइयाँ, चाकलेट तथा मीठे पदार्थ खाने से भी यह रोग हो जाता है। इस रोग की स्थिति में जहाँ तक हो सके संभोग नहीं करना चाहिए अन्यथा अधिक सूजन हो सकती है। तीव्र संक्रमण की स्थिति में एक्युप्रेशर के साथ किसी योग्य डाक्टर से इलाज करवाना अधिक लाभकारी है।
स्तन-प्रदाह (Mastitis-inflammation of the breast)
इस रोग में स्तनों में दर्द अनुभव होता है। स्तन कड़े और भारी तथा सामान्य से अधिक दूध प्रतीत होता है। कई बार चोट लगने से भी स्तनों में प्रदाह हो जाता है।
गर्भाशय का अपने स्थान से हटना (Prolapsed Uterus)
गर्भाशय (uterus) जब अपने निश्चित स्थान से हटकर पेडू के सामने या पीछे झुक जाता है तो इस स्थिति को प्रोलैप्स यूटरस (prolapsed uterus) या डिस्पलेस्मेंट ऑफ यूटरस (displacement of uterus) कहते हैं। बहुधा गर्भाशय अपने स्थान से हटकर प्रायः योनि में प्रवेश कर जाता है और कई बार योनि से बाहर भी लटकने लग जाता है और स्पष्ट दिखने लग जाता है। इस स्थिति में रोगी स्त्री को चलने में काफी दर्द होता है और बार-बार पेशाब आता है, माथे में, कमर में तथा योनि में दर्द रहता है और योनि से पानी सा भी जाना शुरू हो जाता है। टट्टी पेशाब करने तथा संभोग करते समय काफी पीड़ा होती है।
गर्भाशय का अपने स्थान से हट जाने के कई कारण हैं। अनेक प्रसवों (a number of pregnancies), आयु की वृद्धि तथा जन्म से उत्पादक अंगों में कई विकृतियों के कारण मांसपेशियाँ (muscles) तथा बंधनतंतु (ligaments) जिनके सहारे गर्भाशय पेडूगुहा में ठहरा होता है, जब वे फैल जाते हैं या कमजोर पड़ जाते हैं तो गर्भाशय अपने निर्धारित स्थान से हट जाता है। यह रोग बहुधा रजोनिवृत्ति की आयु में होता है क्योंकि उस समय माँसपेशियाँ तथा स्नायुजाल कमजोर पड़ जाते हैं। अत्याधिक संभोग करने, काफी बोझल वस्तुएँ उठाने, चोट लगने, पुरानी कब्ज तथा बवासीर के कारण भी यह रोग हो जाता है। इस रोग में न ही अधिक चलना फिरना चाहिए, न ही अधिक सीढ़ियों पर चढ़ना चाहिए तथा न ही सहवास करना चाहिए। जहाँ तक हो सके रोगिनी को पूर्ण विश्राम करना चाहिए।
गर्भाशय के अपने स्थान से हटने की स्थिति में योनि (vagina) भी प्रायः अपने स्थान से हट जाती है। पर गर्भाशय के अपने स्थान से हटने के बिना भी योनि अपने स्थान से हट जाती है जिसे प्रोलैप्स ऑफ वेजाइना (prolapse of the vagina) कहते हैं। अनेक प्रसवों, पुरानी खाँसी, माँसपेशियों व बन्धनतंतुओं (ligaments) के कमजोर पड़ जाने के कारण बहुधा ‘योनि अपने स्थान से हट जाती है।
रजोनिवृत्ति – मासिकधर्म हमेशा के लिए बन्द होना (Menopause)
जैसे पहले बताया गया है कि मासिकधर्म 10 से 16 वर्ष की आयु में किसी समय भी प्रारम्भ हो कर 45 से 50 वर्ष की आयु में किसी समय भी बन्द हो जाता है। यह वह समय है जब स्त्री की सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। यह एक स्वाभाविक प्राकृतिक नियम है। कई स्त्रियाँ इसका गलत अभिप्राय लेकर इसे लैंगिक जीवन तथा पारिवारिक सुखद अनुभूति की समाप्ति समझ बैठती हैं। यह बिल्कुल गलत बात है। असलियत तो यह है कि कई दंपति इस काल में सन्तान न हो सकने के भय से मुक्त होकर परस्पर सहवास का अधिक आनन्द लेते हैं और इसी मनोवैज्ञानिक भावना से उनकी मैथुन शक्ति बढ़ जाती है।
कई स्त्रियों को रजोनिवृत्ति की स्थिति में कई प्रकार के रोग लग जाते हैं यथा सिर दर्द, थकान, चिड़चिड़ापन, व्यर्थ की शंका तथा शीघ्र क्रोध आ जाना, नींद न आना, कुछ समय के लिए रक्तचाप में वृद्धि, जी मचलाना, दिन में ई बार अचानक चेहरा लाल हो जाना, बार-बार पेशाब आना, हथेलियाँ तलवे यहाँ तक कि सारा शरीर गर्म रहना, कब्ज, बवासीर, पीट व जोड़ों में दर्द, शरीर में फुलाव आ जाना, चेहरे पर बाल उग आना, बाजुओं तथा टाँगों में कीड़ियाँ चलने का आभास होना, डिम्बग्रन्थियों में दर्द होना, आँखों और कान आदि में गरम लहरें आदि चलना एवं पसीना अधिक आना, तथा गर्भाशय से रक्तस्त्राव होना। कई स्त्रियों को ऋतुस्त्राव बंद होने पर नाक व मुँह से रक्त जाना शुरू हो जाता है।
अगर 45 से 50 वर्ष की आयु मासिकधर्म आने की स्थिति में बहुत दिनों तक रक्त जाता रहे तो रजोनिवृत्ति के निकट होने का लक्षण समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त अगर 50 वर्ष की आयु के पश्चात भी रक्तस्त्राव होता रहे तो उसे मासिकधर्म नहीं समझना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में यह गर्भाशय के कैंसर अथवा किसी अन्य रोग के कारण हो सकता है। ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य डाक्टर की सलाह लेना आवश्यक है ताकि रोग कहीं गंभीर रूप न धारण कर जाए।
रजोनिवृत्ति के समय रोग की अवस्था में उत्तेजक भोजन पदार्थों तथा चिकनाई वाली वस्तुओं का सेवन बिल्कुल बंद कर देना चाहिए। खाने में कार्बोहाइड्रेट पदार्थों की मात्रा कम तथा प्रोटीन पदार्थों की मात्रा अधिक कर देनी चाहिए, फल, हरी सब्जियाँ, दूध, दलिया तथा मोटे अनाज की रोटी खानी चाहिए और जहाँ तक हो सके हलका व्यायाम तथा नियमित रूप से सैर करनी चाहिए। इस आयु में कैलसियम की मात्रा के प्रति खास ध्यान देना चाहिये क्योंकि इस समय इस पौष्टिक तत्त्व की शरीर में कमी हो जाती है। जब तक रोग दूर न हो जाए, सहवास नहीं करना चाहिए । मन शांत रख कर अच्छे विचारों की तरफ लगाना चाहिए तथा अच्छी प्रेरणादायक पुस्तकें पढ़नी चाहिए।
रजोनिवृत्ति की स्थिति इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि इस आयु में स्त्री हॉरमोन बहुत कम मात्रा में बनते हैं तथा डिम्बग्रन्थियों में से प्रतिमास अण्डे का पक कर बाहर निकलना बन्द हो जाता है और कई बार यह रुक-रुक कर छः मास से तीन वर्ष तक यहाँ तक कि पाँच वर्ष तक भी चलता रहता है।
बाँझपन (Sterility)
शादी के पश्चात अगर सामान्य संभोग करने तथा किसी गर्भनिरोधक तरीकों के प्रयोग के बिना डेढ़-दो वर्ष तक गर्भ नहीं ठहरता तो इस स्थिति को बाँझपन (sterility) कहते हैं । बाँझपन दो प्रकार का होता है, पहला absolute sterility अर्थात पूर्ण बाँझपन । इस स्थिति में प्रजनन अंग विकृत होते हैं (defective structure of generative organs) और ऐसी अवस्था में गर्भ ठहरने की बिल्कुल संभावना नहीं होती। दूसरी स्थिति का बाँझपन relative sterility होता है।
इस प्रकार के बाँझपन में प्रजनन अंगों में गर्भ ठहरने की शक्ति तो होती है पर उनमें किसी विकार कारण गर्भ नहीं ठहरता। ऐसे विकार ठीक होने योग्य होते हैं । यहाँ दूसरी प्रकार के बाँझपन का वर्णन करेंगे। बाँझपन के बारे में एक और वर्णनीय बात यह है कि कुछ स्त्रियाँ जीवन में एक बार भी गर्भ धारण नहीं कर पाती और कुछ अन्य ऐसी होती हैं जो एक बार गर्भधारण करने के पश्चात् दूसरी बार गर्भधारण नहीं कर पाती ।
बाँझपन पत्नी, पति में से किसी एक या दोनों में जनन क्षमता सम्बन्धी किसी एक या अधिक विकारों के कारण हो सकता है। निसन्तान होने की अवस्था में पति-पत्नी दोनों को अपनी उत्पादक क्षमता की जाँच करानी चाहिए। जिन पुरुषों के शुक्राणु काफी कमजोर हों तथा जिनके प्रजनन अंगों में कोई अन्य विकृति हो, वे सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते । देखने में आया है कि ऐसे पुरुषों के शुक्राणु बहुत कमजोर होते हैं जो हमेशा चिंताकुल रहते हैं, शारीरिक क्षमता से अधिक काम करते हैं या बहुत धूम्रपान करते है ।
जो स्त्रियाँ बँध्या होती हैं उनके बचपन तथा युवावस्था में प्रोटीन आदि की कमी के कारण जनन अंगों का पूर्ण विकास नहीं हुआ होता। ऐसी स्त्रियाँ जिनको ऋतुस्त्राव लगातार अनियमित आता है या बहुत कम आता है या जिनके अन्तःस्त्रावी अंग (endocrine glands) विशेषकर डिम्बग्रन्थियाँ (ovaries), पिट्यूटरी ग्रन्थि (pituitary gland) थाइरॉयड ग्रन्थि (thyroid gland) तथा आड्रेनल ग्रन्थियाँ ( adrenal glands) समुचित मात्रा में हॉरमोन पैदा नहीं करती, वे प्रायः सन्तान पैदा नहीं कर सकती।
कुछ स्त्रियों की डिम्बग्रन्थियों से अण्डा पक कर नहीं निकलता जिस कारण वे गर्भवती नहीं हो पाती। अगर अण्डा ठीक प्रकार बनता और निकलता हो पर अगर गर्भाशय नलिकाओं (uterine tubes) में किसी प्रकार की कोई विकृति, सूजन या अवरोध हो, वे बीच में किसी जगह बन्द हों या तंग हों तो पुरुष के शुक्राणु का डिम्ब के साथ संयोजन (fusion) नहीं हो पाता जिस कारण गर्भ नहीं ठहरता।
इसके अतिरिक्त अगर गर्भाशय का विकास ठीक प्रकार न हुआ हो, या उसमें सूजन आदि हो, गर्भाशय में रसौली या कैंसर हो या गर्भाशय ठीक स्थिति में न हो या फिर प्रजनन अंग तपेदिक रोग के कारण प्रभावित हों, तो भी गर्भ नहीं ठहर पाता । यौन सम्बन्धी छूत के कई रोगों विशेषकर सूजाक (gonorrhea) आदि की स्थिति में भी गर्भ नहीं ठहरता, अतः गर्भधारण करने के लिए ऐसे रोगों का पहले इलाज कराना अनिवार्य है।
अगर किसी प्रकार की कोई विकृति या रोग न हो तो ऐसा भी हो सकता है कि पति-पत्नी उन दिनों संभोग नहीं करते जो दिन अण्डोत्सर्ग (ovulation) या इसके आसपास होते हैं । जिस स्त्री को मासिकधर्म 28 दिन के बाद आता है उसका अण्डोत्सर्ग आगामी मासिकधर्म से 14 दिन पहले होता है, अतः संतान प्राप्ति के लिए अण्डोत्सर्ग के दिनों में संभोग करना जरूरी है। अन्यथा अण्डा व्यर्थ चला जाता है। यहाँ यह जान लेना भी जरूरी है कि पुरुष का शुक्रकीटाणु स्त्री के जननांगों में प्रविष्ट होकर लगभग तीन दिन तक जीवित रहता है। अगर इन तीन दिनों की अवधि में शुक्राणु का डिम्ब से सम्पर्क हो जाए तो गर्भ ठहर जाता है।
कुछ स्त्रियाँ किन्हीं विशिष्ट तथ्यों के कारण बाँझ रह जाती हैं यथा संभोग के समय अधिक पीड़ा (dyspareunia – painful intercourse) अनुभव करना, गर्भ ठहरने का भय, संतान की चिंता, संतान पाने की अधिक उत्सुकता, कई अन्य प्रकार की चिंता, मानसिक तनाव, अत्यधिक मोटापा, रक्त की कमी तथा पुरुष के शुक्रकीटाणुओं का न होना इत्यादि ।
अगर योनि का वह द्वार जो गर्भाशय में खुलता है उसमें कोई व्यवधान हो या संभोग के समय योनि में एकाएक सुकड़न आ जाती हो तो पुरुष के शुक्राणु गर्भाशय के मार्ग गर्भाशय नलिकाओं (uterine tubes) तक नहीं पहुँच पाते। एक्स-रे (x-ray) की विकिरण (radiation) क्रिया से भी कई स्त्रियों की डिम्बग्रन्थियों पर कुप्रभाव पड़ता है जिस कारण वे अण्डोत्सर्ग नहीं कर पाती।
कई बार ऐसा होता है कि डिम्ब शुक्रकीटाणुओं तथा प्रजनन अंगों किसी में भी कोई विकार नहीं होता पर डिम्ब तथा शुक्राणु आपस में एलर्जिक (allergic) होते हैं जिस कारण डिम्ब का संयोजन नहीं हो पाता। कई संतानहीन दम्पतियों से पूछताछ के बाद यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि जो पति-पत्नी संभोग के समय कई तरह की क्रीम आदि प्रयोग में लाते हैं उसके कारण भी जीवाणु मर जाते हैं जिस कारण गर्भ नहीं ठहर पाता।
गर्भ निरोध के विचार से कई बार गर्भपात कराने से भी बाँझपन हो सकता है। इसके अतिरिक्त डाक्टर की सलाह के बिना अत्याधिक गर्भ निरोधक गोलियाँ खाने से भी उत्पादक क्षमता क्षीण हो जाती है। सिफलिस (syphilis-an infectious venereal disease) जो योनि का एक संक्रामक रोग है, उस स्थिति में भी गर्भ नहीं ठहर पाता ।
संतानहीन दम्पतियों को निराश न होकर सदैव आशावान् रह कर अपना इलाज कराना चाहिए। एक्युप्रेशर पद्धति द्वारा वे अनेक शारीरिक विकारों को दूर कर निश्चय ही संतान प्राप्त कर सकते हैं। उत्पादक क्षमता के लिए पति, पत्नी दोनों को पौष्टिक एवं संतुलित आहार लेना चाहिए तथा नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए।
स्वाभाविक गर्भपात (Miscarriage – Spontaneous Abortion)
स्वाभाविक गर्भपात स्त्रियों में काफी बड़ी संख्या में होता है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 33 प्रतिशत स्त्रियों को एक न एक बार अवश्य स्वाभाविक गर्भपात होता है। गई स्त्रियों को कई बार स्वाभाविक गर्भपात का पता तक भी नहीं चलता। लगभग 75 प्रतिशत गर्भपात गर्भावस्था के तीन महीनों में ही रक्तस्त्राव (bleeding) जो प्रायः काफी होता है, के साथ हो जाते हैं।
स्वाभाविक गर्भपात के सारे कारणों का अभी तक पता नहीं चल सका है क्योंकि यह किसी लैंगिक व शारीरिक गतिविधि या भावात्मक परेशानी के कारण नहीं होता। ऐसा अनुमान है कि काफी मात्रा में तथा तेज असर वाली औषधियाँ खाने, कई बार तेज बुखार रहने, गर्भवती स्त्री के पेट पर किसी कारण चोट लगने, बार-बार एक्स-रे करवाने ( क्योंकि विकिरणों radiation, का प्रजनन अंगों पर काफी कुप्रभाव पड़ता है), तीव्र संक्रमण (acute infection), ग्रन्थियों के विकार (glandular disorders), गर्भाशय या इसके समीप वाले भाग में रसौली होने तथा योनि में परीक्षण के समय कई बार तथा बार-बार उपकरण (instruments) डालने के कारण भी स्वाभाविक गर्भपात हो जाता है।
गर्भाशय में अचानक कई तरह के विकार आ जाने के कारण भी गर्भ, पूरी तरह नहीं ठहर पाता। डाक्टरों की ऐसी भी राय है कि जिन गर्भवती स्त्रियों को रक्तचाप का रोग हो, गुर्दों (kidneys) की कोई चिरकारी बीमारी हो, मधुमेह हो या फिर हृदय अथवा फेफड़ों की कोई बीमारी हो तो गर्भाशय में पल रहे जीव को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन नहीं मिल पाती जिस कारण भी गर्भपात हो जाता है। इसके अतिरिक्त अगर माता और गर्भस्थ शिशु का रक्त भी आपस में न मिल पाये या उसमें कोई दोष हो जाए तो भी बच्चे का पालन रुक जाता है और गर्भ गिर जाता है।
गर्भपात की स्थिति में पूर्ण विश्राम करना बहुत जरूरी है। इन दिनों संभोग कदाचित नहीं करना चाहिए। अगर गर्भपात स्वाभाविक हो तो अन्य बात है पर अगर किन्हीं कारणोंवश गर्भपात कराना आवश्यक हो जाए तो वह किसी योग्य तथा प्रमाणित डाक्टर से कराना चाहिए अन्यथा रक्तदूषण हो जाने के कारण रोगी की मृत्यु तक का संकट बन जाता है कई स्त्रियों को तीन-चार बार तथा इससे भी अधिक बार गर्भपात हो जाता है। ऐसी स्थिति में अन्य कारणों के अतिरिक्त हॉरमोन की न्यूनता और असमानता, खासकर थाइरॉयड ग्रन्थि द्वारा अपना कार्य भलीभाँति न करना इसके कारण होते हैं एक्युप्रेशर पद्धति द्वारा बार-बार होने वाले गर्भपात को रोका जा सकता है।
संभोग के प्रति उदासीनता
कई स्त्रियाँ संभोग के प्रति उदासीन होती हैं। उनका संभोग करने को मन नहीं करता, संभोग में वे रुचि नहीं लेती या फिर संभोग की चरम सीमा (frigidity- fail to have an _orgasm) तक नहीं पहुँच पाती । गर्भ धारण करने के लिए संभोग की चरम सीमा तक पहुँचना जरूरी है। संभोग एक प्राकृतिक क्रिया है जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। हाँ, इतना अवश्य है कि प्रतिदिन संभोग करना शरीर के लिए अच्छा नहीं।
संभोग के प्रति उदासीनता का मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकता है, अगर ऐसा है तो ऐसी मूल परेशानियों को भी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। कई स्त्रियाँ पति के क्रूर व्यवहार, उनकी निरंतर अवहेलना तथा घर की अनेक समस्याओं के कारण संभोग में रुचि नहीं लेती। पति का यह नैतिक कर्तव्य है कि यथासंभव ऐसी उलझनों को दूर करके घर में सुखद वातावरण पैदा करे।
एक्युप्रेशर द्वारा स्त्री रोगों का इलाज
स्त्रियों के जिन रोगों का ऊपर वर्णन किया गया है, वे विशेष रूप से उनके जननांगों अर्थात गर्भाशय, गर्भाशय नलिकाओं, डिम्बग्रन्थियों तथा योनि आदि में किन्हीं जन्मगत विकारों, स्त्री हॉरमोन की कमी या असंतुलन, अपौष्टिक आहार, गलत रहन-सहन, चिंता, चोट आदि लगने तथा कई अन्य रोगों के कारण हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त शरीर के कुछ प्रमुख अंगों में कोई खराबी भी इन रोगों का कारण बन जाती है। अतः रोग निवारण के लिए पैरों तथा हाथों में उन सब प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए जो दबाने से अस्वाभाविक दर्द करें।
किसी भी स्त्री रोग का इलाज करने के लिए सबसे पहले पैरों तथा हाथों के अँगूठों के अग्रभागों (tips) पर प्रेशर दें क्योंकि ये भाग पिट्यूटरी ग्रंथि पीनियल ग्रंथि तथा मस्तिष्क के प्रतिबिम्ब केन्द्र है।

इसके बाद स्नायुसंस्थान (nervous system) के केन्द्रों विशेषकर लम्बर तथा सैक्रम भाग से सम्बन्धित केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए क्योंकि इन भागों का जननांगों से सीधा सम्बन्ध होता है। स्नायु संस्थान का ठीक रहना वैसे भी सम्पूर्ण निरोगता के लिए बहुत जरूरी है। पैरों तथा हाथों में स्नायुसंस्थान से सम्बन्धित केन्द्रों की स्थिति आकृति नं० 2 तथा आकृति नं० 3 में दिखाया गया है।


स्नायुसंस्थान के केन्द्रों पर प्रेशर देने के बाद थाइरॉयड तथा पैरा-थाइरॉयड ग्रंथियों तथा आड्रेनल ग्रंथियों के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए जैसाकि आकृति नं०4 से स्पष्ट है।

इसके अतिरिक्त गुर्दों, स्पलीन, जिगर, आमाशय, नाभिचक्र व डायाफ्राम तथा लसीकातंत्र के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी प्रेशर दें। स्त्रियों के प्रत्येक रोग में जननांगों से सम्बन्धित सारे केन्द्रों पर प्रेशर देना बहुत ही जरूरी है चाहे किसी केन्द्र पर दबाने से दर्द हो या न हो। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि स्त्रियों के सारे जननांगों का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। नियमित रूप से प्रेशर देने से रोग दिन-प्रतिदिन घटता जाता है और प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने से पहले जितना दर्द भी नहीं होता ।
गर्भाशय सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्र
गर्भाशय (uterus) सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्र दोनों पैरों के अँगूठों की तरफ वाले टखनों (ankles) से थोड़ा नीचे अर्थात टखने एवं एड़ी के मध्य भाग में होते हैं जैसाकि आकृति नं० 5 में दर्शाया गया है।

इसके अतिरिक्त टाँगों पर एड़ी तथा उससे थोड़ा ऊपरी भाग ( आकृति नं० 6) में भी गर्भाशय तथा दूसरे प्रजनन अंगों सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं। समस्त स्त्री रोगों विशेषकर मासिकधर्म दोष के रोगों में दोनों टाँगों के इस भाग पर प्रेशर दें ।

पैरों के अतिरिक्त बाजुओं के अग्रिम भाग पर अँगूठे की दिशा में गर्भाशय सम्बन्धी केन्द्र हैं। एड़ियों के मध्य भाग में भी प्रजनन अंगों सम्बन्धी केन्द्र हैं (आकृति नं० 7) । रोग की अवस्था में इन केन्द्रों पर भी प्रेशर देना चाहिए।

डिम्बग्रन्थियों सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्र
डिम्बग्रन्थियों (ovaries ) सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्र दोनों पैरों की सबसे छोटी अँगुली की तरफ टखनों (ankles ) से थोड़ा नीचे अर्थात टखनों एवं एड़ी के मध्य भाग में होते हैं जैसाकि आकृति नं० 5 में दिखाया गया है। बाजुओं के अग्रिम भाग ( आकृति नं० 7) पर छोटी अँगुली की दिशा में भी इन ग्रन्थियों सम्बन्धी केन्द्र हैं ।
गर्भाशय नलिकाओं (fallopian tubes ) से सम्बन्धित केन्द्र पैरों के ऊपर उस स्थान पर होते हैं जहाँ पैर तथा टाँग परस्पर मिलते हैं। इसी प्रकार हाथों के ऊपर ये केन्द्र कलाई एवं हाथ की मिलन रेखा वाले स्थान पर हैं।
संभोग के बारे में उदासीनता (a psychologically based inability to respond to a sexual relationship) करने के लिए मस्तिष्क, ग्रन्थियों तथा प्रजनन अंगों के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने के अतिरिक्त दोनों जाँघों के भीतरी मध्य भाग पर (आकृति नं० 8) हाथ के अंगूठे के साथ कुछ सेकंड के लिए गहरा प्रेशर दें । जाँघों पर प्रेशर किसी कुर्सी या चारपाई पर बैठ कर दें।

स्त्री रोगों प्रति चेहरे पर भी कई प्रतिविम्ब केन्द्र हैं। प्रजनन अंगों सम्बन्धी हाथों तथा पैरों पर विभिन्न केन्द्रों पर प्रेशर देने के अतिरिक्त इन केन्द्रों पर भी प्रेशर दें ।
स्त्री रोग निवारण में हॉरमोनस (Hormones) का महत्त्व
औरतों के प्रजनन अंगों सम्बन्धी यह एक प्राकृतिक नियम है कि गर्भाशय की क्रिया का नियन्त्रण डिम्बग्रन्थियों (ovaries) के हॉरमोनस करते हैं तथा डिम्बग्रन्थियों की क्रिया का नियन्त्रण पिट्यूटरी ग्रन्थि ( pituitary gland) के हॉरमोनस करते हैं। पिट्यूटरी ग्रन्थि का नियन्त्रण मस्तिष्क (brain) का एक विशेष भाग हाइपोथलामस (hypothalamus) करता है।
प्रजनन अंगों की क्रिया में थाइरॉयड ग्रन्थि (thyroid gland) तथा आड्रेनल ग्रन्थियों (adrenal glands) के हॉरमोनस का भी बहुत बड़ा योगदान है। जैसाकि पहले बताया गया है स्त्रियों के समस्त रोगों में मस्तिष्क, पिट्यूटरी, पीनियल, थाइरॉयड, पैराथाइरॉयड तथा आड्रेनल ग्रन्थियों सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना आवश्यक है।