रूमेक्स क्रिस्पस | Rumex Crispus
यक्ष्मा रोग के लिए, त्वचा एवं श्लेष्मकलायें अतिसम्वेदनशील । खुली हवा के प्रति भारी सम्वेदनशीलता; कण्ठ की कर्कशता; सायंकालीन वृद्धि; सर्दी लग जाने के बाद; स्वर अनिश्चित । कण्ठ गह्वर के अन्दर गुदगुदी, फलस्वरूप शुष्क, कष्टदायक खाँसी । शुष्क, अविराम, थका देने वाली खाँसी; वायु अथवा कमरा बदलने से बुद्धि (फास्फो, स्पान्जि) शाम को लेटने के बाद; कण्ठ गह्वर को छूने या दबाने से दायीं करवट लेटने से (फास्फो); जरा-सी ठण्डी हवा खींचने से हवा को अधिक गर्म करने के लिए सिर को चादर अथवा रजाई से ढक लेता है; बलगम कम निकलता है या निकलता ही नहीं।
ठण्डी हवा से अथवा ऐसी कोई भी वस्तु जो अन्तःश्वसित वायु की तीव्रता को बढ़ाती है, उससे और अधिक खांसी होने लगती है। कण्ठ के अन्दर कोई पिण्ड विद्यमान होने की अनुभूति; निगरण के दौरान नीचे चला जाता है, किन्तु तुरन्त ही लौट आता है । खांसते समय स्वरयंत्र एवं श्वासप्रणाल के अन्दर कच्चेपन की अनुभूति (कास्टि) ।
मूत्र – खाँसी के साथ निरंकुश (कास्टि, पल्सा, साइली) ।
प्रातःकालीन अतिसार, प्रातः 5 बजे से 10 बजे तक (एलो, नेट्र, सल्फ्यू, पोडो, सल्फ); मल दर्दहीन, विपुल परिमाण में, दुर्गन्धित; आकस्मिक आवेग, प्रातःकाल बिस्तरे से उठ कर मलत्याग के लिये भागना पड़ता है ।
चर्म – विभिन्न भागों की खुजली; ठण्ड से बृद्धि, गरमी से आराम; वस्त्र उतारते समय, अंगों को खुला रखने अथवा ठण्डी हवा लगने से (हीपर, नेट्र-सल्फ्यू, ओलिएण्ड) ।
सम्बन्ध – बेला कास्टि, ड्रासे, हायोसा, फास्फो, सैंग्वी, सल्फ से तुलना कीजिए ।
रोगवृद्धि – ठण्ड या ठण्डी हवा से; लेटने से (हायोसा) ।
रोगाह्रास – गरमाई से ठण्डी हवा से बचने के लिये मुख को ढक कर रखने से ।