एक्युप्रेशर से लकवा का उपचार

एक्युप्रेशर से लकवा का उपचार

आज संसार में करोड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो कई ऐसे रोगों से पीड़ित हैं जिनसे उनके शरीर के कुछ अंग अपना कार्य करना बन्द कर देते हैं। ये रोग मुख्यतः मस्तिष्क (brain), स्नायु संस्थान (nervous system) तथा मांसपेशियों (muscles) में कुछ विकार आ जाने के कारण होते हैं।

शरीर के इन संस्थानों से सम्बन्धित अनेक रोग हैं और उनके होने के भी अनेक कारण हैं यथा रक्तसंचार विकार (vascular disorders), संक्रमण (infections ), संरचनात्मक विकार (structural disorders), कार्यात्मक विकार (functional disorders) तथा अंगों में पतन आना (degenerations) इत्यादि ।

यहाँ केवल उन्हीं रोगों का वर्णन किया जा रहा है जो एक्युप्रेशर द्वारा पूरी तरह या फिर काफी हद तक ठीक हो सकते हैं। वैसे मस्तिष्क, स्नायुसंस्थान तथा मांसपेशियों के प्रत्येक रोग में एक्युप्रेशर से इलाज किया जा सकता है और उससे लाभ भी पहुँचता है। इन संस्थानों से सम्बन्धित कुछ प्रमुख रोग इस प्रकार हैं:-

  • लकवा पक्षाघात (paralysis stroke, facial paralysis-bell’s palsy)
  • मल्टीपल सलेरोसिस (multiple sclerosis)
  • मसकुलर डिस्ट्रोफी (muscular dystrophy)
  • मायोपैथी (myopathy)
  • सेरेब्रल पलसी (cerebral palsy)
  • पारकिनसन डसीज़ (parkinson’s disease)
  • मिरगी-मूर्च्छा (epilepsy)

लकवा पक्षाघात (paralysis-stroke, facial paralysis-bell’s palsy)

शरीर में स्नायु संस्थान के एक या अनेक तन्तुओं की संचालन शक्ति का स्थूल पड़ जाना अर्थात रुक जाना, नाश हो जाना लकवा कहलाता है।

लकवा मस्तिष्क में भलीभाँति रक्त संचार न होने तथा मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी तथा स्नायु संस्थान में किसी विकृति के कारण होता है। पक्षाघात के कारण शरीर पर कितना प्रभाव पड़ता है वह इस तथ्य पर निर्भर करता है कि मस्तिष्क तथा स्नायुसंस्थान का कौन सा भाग कितना प्रभावित हुआ है। यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि मस्तिष्क का बायाँ भाग शरीर के दाहिने भाग को नियंत्रित करता है। तथा इसी प्रकार मस्तिष्क का दायाँ भाग शरीर के बायें भाग को संचालित करता है।

1. लकवा कई प्रकार का होता है यथा अद्धाँग का लकवा (hemiplegia-paralysis of one side of the body) : इसमें शरीर के आधे भाग, दायें या बायें तरफ के अंग अपना कार्य करना बंद कर देते हैं। इसका प्रभाव एक तरफ के हाथ, पैर, आवाज तथा आधे मुख मण्डल पर पड़ता है।

2. एकांग का लकवा (monoplegia paralysis of only one limb or part) : इसमें केवल एक हाथ और एक पैर पर प्रभाव पड़ता है। इस रोग में रोगी इच्छानुसार हाथ तथा पैर को हिला नहीं पाता।

3. पूर्णांग का लकवा (quadriplegia diplegia, paralysis of corresponding parts on both sides of the body): इसमें व्यक्ति के दोनों हाथ और दोनों पैर बेकार हो जाते हैं अर्थात शरीर के दोनों तरफ के भाग रोगग्रस्त हो जाते हैं।

4. निम्नांग का लकवा (paraplegia-paralysis of both legs and lower parts of the body): इसमें पेडूगुहा (pelvic) से नीचे का भाग अर्थात जाँघों से लेकर पैरों की अँगुलियों तक शरीर के सारे निचले भाग की शक्ति नष्ट हो जाती है।

5. स्वरयन्त्र का लकवा (vocal cord’s paralysis) इसमें व्यक्ति का बोलना पूर्णरूप से या आंशिक रूप से बन्द हो जाता है।

6. आवाज का लकवा (bulbar paralysis or aphasia) : इस रोग में जीभ जकड़ सी जाती हैं जिससे बोलने में तकलीफ होती है तथा व्यक्ति तुतलाना भी शुरू कर देता है ।

7. मुँह का लकवा (facial paralysis-bell’s palsy) : इसमें मुँह का एक तरफ का भाग स्थूल होकर थोड़ा घूम सा जाता है। मुँह का एक कोना नीचे हो जाता है, कई रोगियों की उस तरफ की आँख में भी टेढ़ापन सा आ जाता है तथा आँख प्रायः खुली ही रहती है। आँख से पानी भी बहने लगता है। गाल पूरा फूल नहीं पाता। हँसने पर मुँह टेढ़ा लगता है।

8. अँगुलियों का लकवा (writer’s paralysis) : इसमें हाथ की अंगुलियों पर प्रभाव पड़ता है। कई लोगों का अँगूठा पूरी तरह हिल नहीं पाता और वे ठीक प्रकार लिख नहीं पाते ।

कुल मिलाकर 10 प्रकार का लकवा माना गया है और एक्युप्रेशर द्वारा प्रत्येक तरह के लकवा का इलाज किया जा सकता है।

मल्टीपल सलेरोसिस (multiple sclerosis)

इस रोग के कारण शरीर के नीचे के अंगों में कमजोरी, भारीपन, कड़ापन, हाथों में कम्पन, याद शक्ति में कमी, आँखों में अस्थिरता (temporary blurring of vision), नजर की कमजोरी तथा दोषपूर्ण आवाज (slurred speech) आदि प्रमुख लक्षण हैं। रोग बढ़ने पर शरीर के अंग अपना काम करना बन्द कर देते हैं। शुरू-शुरू में पेशाब करने में कठिनाई होती है पर बाद में अपने-आप पेशाब निकल जाता है।

मसकुलर डिस्ट्रोफी (muscular dystrophy)

यह रोग मुख्यतः लड़कों को होता है। इस रोग में धीरे-धीरे बच्चों की मांसपेशियाँ कमजोर पड़ जाती हैं। पाँच वर्ष की आयु से पहले ही यह रोग शुरू हो जाता है। पहले तो माँ-बाप को रोग का पता ही नहीं चलता। उन्हें तब चिंता होती है जब कई बच्चे चलना शुरू नहीं करते। ऐसे बच्चे प्रायः कुछ देरी से अर्थात डेढ़ या दो साल की आयु में चलना शुरू करते हैं। प्रारम्भ में अधिकतर बच्चों की चाल ठीक नहीं होती है पर तीन साल की आयु के आसपास उनकी चाल में कुछ विकृति आ जाती है और प्रायः एड़ी उठा कर चलने लगते हैं। रीढ़ की हड्डी में कुछ विकृति आने से बच्चे के लिए बैठ कर उठना कठिन हो जाता है, कई लड़के गिर भी जाते हैं।

रीढ़ की हड्डी के साथ टाँगों की मांसपेशियों में कमजोरी आ जाने के कारण सीढ़ियां चढ़ना या तेज दौड़ना मुश्किल हो जाता है। सात-आठ साल की आयु में बैठ कर उठने के लिए बच्चा सहारा ढूँढता है। सीधा चलने की बजाय ऐसा बच्चा टाँगें चौड़ी करके चलता है तथा उसकी चाल लड़खड़ाती है। सिर से ऊपर हाथ ऊँचा करना तथा कई प्रकार का अपना निजी काम करना उसके लिए कठिन होता है।

मांसपेशियाँ कुछ मोटी विशेषकर पिण्डलियों का भाग (calf muscles) काफी कमजोर तथा मोटा हो जाता है। बीस साल की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उसका चलना-फिरना लगभग समाप्त हो जाता है। जब बीमारी बढ़ जाती है तो श्वास लेने में कठिनाई तथा हृदय रोग भी हो जाता है। सबसे दुःखदायी पक्ष तो यह है कि अभी तक इस बीमारी का कोई इलाज नहीं निकला है।

कई प्रकार की जाँच यथा खून टेस्ट (creatine phosphokinase CPK), मांसपेशियों की जाँच (electomyography EMG), नवर्ज़ की जाँच (nerve conduction studies), मसल बायोप्सी (muscle biopsy) तथा बच्चे की गतिविधियों से इस रोग का पता लग जाता है।

एक्युप्रेशर द्वारा कई बच्चों को इस रोग में लाभ पहुँचा है। ऐसे बच्चों के माँ-बाप स्वयं ही घर पर एक्युप्रेशर द्वारा इलाज कर रहे हैं। ऐसा विश्वास एवं आशा है कि एक्युप्रेशर द्वारा ऐसे बच्चे दिन-प्रतिदिन ठीक होकर सामान्य जिंदगी बिता सकेंगे।

मायोपैथी (myopathy)

इस रोग में मांसपेशियाँ सूखने लगती हैं, कुछ फैल भी जाती हैं, उनमें विकृति आ जाती है जिससे शरीर टेढ़ा होने लगता है। कमजोरी के कारण रोगी के लिए चलना कठिन होता है, पहले पैरों को दूर-दूर फैलाकर चल पाता है तथा पीछे की तरफ नहीं चल पाता । कभी-कभी यह रोग बचपन में तथा कभी उम्र बढ़ने पर होता है।

सेरेब्रल पलसी (cerebral palsy)

यह मस्तिष्क के किसी विकार के कारण होने वाला मांसपेशियों का लकवा है। इस रोग में मस्तिष्क का विशेष भाग मांसपेशियों पर अपना नियंत्रण खो बैठता है जिस कारण वे सख़्त हो जाती हैं। इस रोग में बच्चों के विभिन्न अंगों की गति या तो बिल्कुल रुक जाती है या फिर बहुत ही कमजोर हो जाती है।

ऐसे बहुत से बच्चे मानसिक तौर पर कमजोर, कुछ हद तक बहरे, आँखों के कई रोग वाले तथा भैंगे भी होते हैं। यह रोग उन बच्चों में अधिक देखा गया है जो जन्म के समय काफी कमजोर तथा जो गर्भ का समय पूरा होने से पहले जन्म लेते हैं।

बहुत से बच्चों में इस रोग का आरम्भ जन्म से पूर्व अर्थात गर्भ में या फिर प्रसव (delivery) के समय होता है।

अगर गर्भ के आखिरी महीनों में गर्भस्थ बच्चे को कोई चोट पहुँचे, जन्म के समय बच्चे को कोई ठेस पहुँचे या प्रसव काफी कठिनाई से हो तो भी अधिकतर बच्चों को यह रोग हो जाता है। ऐसे बहुत से बच्चों को प्रायः मिरगी के दौरे पड़ते हैं, अंगों में विकृति आ जाती है, व्यवहार सामान्य नहीं होता तथा उनकी आवाज भी स्पष्ट नहीं होती ।

पारकिनसन डसीज़ (parkinson’s disease)

यह स्नायु संस्थान सम्बन्धी रोग है। यह कम्पन रोग है जो अधिक उम्र होने पर होता है। इस रोग में हाथों में या सिर में स्वयं ही कम्पन होती है रोगियों के हाथ और सिर दोनों कांपने लगते हैं। कोई काम शुरू करने पर कम्पन प्रायः बन्द हो जाती है। इस रोग में कई रोगियों को काफी डिप्रेशन (depression) हो जाता है।

पोलियो (polio-poliomyelitis)

यह रोग किसी भी आयु के व्यक्ति विशेषकर पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों और उनमें भी अधिकतर 6 मास से एक साल की आयु के बच्चों को एकाएक वायरस के आक्रमण के कारण होता है। इस रोग में पहले सिरदर्द, गले का दर्द और बुखार होता है। गर्दन और पीठ की मांसपेशियों दर्द करती हैं, उसके बाद मांसपेशियाँ सूखने लगती हैं जिस कारण चलना फिरना कठिन हो जाता है।

विशेषकर एक टॉंग बहुत दुर्बल व पतली हो जाती है और लम्बाई में दूसरी टाँग से थोड़ी छोटी भी हो जाती है। कई रोगियों के पैर में पूरी शक्ति नहीं रहती जिस कारण कई बार पैर से चप्पल अपने आप बाहर निकल जाती है। कई रोगियों का एक बाजू भी दुर्बल हो जाता है। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, हड्डियों और जोड़ों में भी विकृति आने लगती है। हमारे देश में जितने अपंग बालक है उनमें से दो तिहाई पोलियों के कारण अपंग है।

यद्यपि विकसित देशों में पोलियों की बीमारी का पूरी तरह उन्मूलन कर दिया गया है, विकासशील देशों में अब भी यह बीमारी है ।

एक्युप्रेशर द्वारा उपचार

आकृति नं० 1

पक्षाघात होने पर एकदम डाक्टरी सहायता लेनी चाहिए। समय पर उचित डाक्टरी सहायता मिल जाने से यह रोग प्रारम्भिक अवस्था में ही ठीक हो जाता है। अगर तुरंत डाक्टरी सहायता न मिल सके तो पैरों तथा हाथों में मस्तिष्क (आकृति नं० 1) तथा स्नायुसंस्थान – nervous system (आकृति नं० 2 तथा 3) के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए।

आकृति नं० 2
आकृति नं० 3

इसके अतिरिक्त पैरों तथा हाथों के अंगूठों के साथ-साथ, ऊपर तथा नीचे भी प्रेशर दें। वैसे रोग निवारण के लिए भी नियमित रूप से इन केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए।

जितनी जल्दी हो सके डाक्टरी सहायता ले लेनी चाहिए। उसके बाद दवाइयों के साथ-साथ एक्युप्रेशर भी जारी रख सकते हैं। अगर अटैक के बाद शुरू के दिनों में ही एक्युप्रेशर द्वारा इलाज जारी किया जाए तो पक्षाघात बहुत शीघ्र दूर हो जाता है ।

अनेक ऐसे रोगियों का इलाज करते समय यह देखा है कि कई रोगियों की चाल, हाथ की गति तथा आवाज एक साथ ठीक हो जाते हैं पर अधिकांश रोगियों की पहले चाल ठीक होती है, उसके बाद बाजू तथा हाथ की गति ठीक होती है तथा बाद में विकृत आवाज ठीक होती है।

अटैक के बाद जितनी जल्दी एक्युप्रेशर से इलाज किया जाए उतना जल्दी आराम आता है। अगर अटैक होने के कई महीने बाद यह इलाज शुरू किया जाए तो आराम आने में अधिक समय लग जाता है। ऐसी अवस्था में निराश नहीं होना चाहिए, रोगी की हालत दिन-प्रतिदिन काफी ठीक होती जाती है ।

पक्षाघात का रोग प्रायः अधिक धूम्रपान, शराब के अधिक सेवन, मधुमेह, उच्च रक्तचाप तथा उच्च कोलेस्ट्रोल स्तर के कारण होता है। अतः इन मौलिक कारणों की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए। पक्षाघात के रोगी को सदैव उत्साहित करना चाहिए क्योंकि उसकी आंतरिक शक्ति रोग दूर करने में सबसे अधिक सहायक होती है।

मल्टीपल सलेरोसिस, मस्कुलर डिस्ट्रोफी, मायोपैथी, सेरेब्रल पलसी तथा पारकिनसन डसीज़ के बारे में डाक्टरी मत यह है कि ये रोग असाध्य हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इन रोगों के सफलतापूर्वक इलाज के लिए विश्वभर में अनुसंधान चल रहा है और अभी उत्साहजनक परिणामों की प्रतीक्षा की जा रही है।

जहाँ तक एक्युप्रेशर का सम्बन्ध है, इलाज के बाद बहुत से रोगियों की दशा में काफी सुधार हुआ है। उनकी चालढाल तथा व्यवहार में काफी संतोषजनक परिणाम मिले हैं। मेरा अपना विचार है कि जो रोगी किसी दवाई का सेवन कर रहे हैं या जो किसी प्रकार की कोई दवाई नहीं ले रहे, दोनों अवस्थाओं में रोगी एक्युप्रेशर द्वारा अपना इलाज कर सकते हैं, उनको इस पद्धति द्वारा अवश्यमेव आंशिक या पूरा लाभ मिलेगा।

ऊपर जितने भी रोगों का वर्णन किया गया है उनमें शरीर के लगभग सारे अंग प्रभावित होते हैं, अतः यह आवश्यक है कि पैरों तथा हाथों में सारे प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर दें।

एक्युप्रेशर से लकवा का उपचार
आकृति नं० 4

पैरों तथा हाथों पर प्रेशर शुरू करने से पहले गर्दन तथा खोपड़ी की मिलन रेखा के मध्य भाग में, प्वाइण्ट 1 पर ( आकृति नं० 4) हाथ के अंगूठे के साथ कुछ सेकंड के लिए अवश्य प्रेशर दें ।

मस्तिष्क तथा स्नायुसंस्थान के कई रोगों में क्योंकि हाथ, बाजू तथा शरीर का नीचे का हिस्सा रोगग्रस्त हो जाता है, इसलिए हाथों तथा बाजुओं के केन्द्रों, पीठ, कमर, कूल्हे, टाँगों तथा पैर के केन्द्रों , टाँगों के पीछे तथा टाँगों के भीतरी भाग पर प्रेशर दें.

मस्कुलर डिस्ट्रोफी के रोगी बच्चों की पीठ पर रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ प्रेशर दे सकते हैं पर उनकी टाँगों के किसी भाग पर प्रेशर न दें।

आकृति नं० 5

इन रोगों को शीघ्र दूर करने के लिए रोगी के पैरों तथा हाथों की अंगुलियों के ऊपरी भाग पर प्रेशर देने के साथ-साथ सारे चैनलस (आकृति नं० 5) पर प्रैशर दें। इसके अतिरिक्त हाथों के ऊपर अँगूठे और पहली अँगुली के बीच वाले त्रिकोने स्थान तथा कलाइयों पर भी अवश्य प्रेशर दें। ये भाग ग्रंथियों तथा पीठ के निचले भाग से सम्बन्धित होते हैं।

आकृति नं० 6

पक्षाघात तथा दूसरे जितने भी रोगों का ऊपर वर्णन किया गया है उनका सबसे अधिक दुःखदायी पक्ष यह है कि रोगी के लिए आसानी से चलना-फिरना कठिन हो जाता है। नितम्ब तथा घुटने शरीर का बोझ पूरी तरह उठा नहीं पाते, चाल लड़खड़ा जाती है और कई बार कई रोगी टहरे टहरे गिर भी जाते हैं।

अतः यह जरूरी है कि पीठ के निचले भाग, टाँगों तथा घुटनों को सशक्त बनाया जाये। उसके लिए ऊपर बताये प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने के अतिरिक्त दोनों पैरों के चारों टखनों के साथ-साथ (आकृति) नं० 6) तथा एडी सहित टाँगों के निचले भाग ( आकृति नं० 7) व पैरों की सारी अँगुलियों पर कुछ मिनट के लिए प्रेशर दें ।

आकृति नं० 7

मिरगी – मूर्च्छा ( Epilepsy)

वर्षों पहले लोगों की यह धारणा थी कि जब कोई प्रेत आत्मा किसी व्यक्ति के अन्दर प्रवेश करती है तो उसे मिरगी का दौरा पड़ता है या फिर यह कोई देवी प्रकोप है। गांव तथा शहरों में अब भी कई ऐसे लोग हैं जो अज्ञानवश ऐसी बातें करते हैं। इन भ्रांतियों के कारण ऐसे लोगों से न ही कोई विवाह करता था और न ही नौकरी देता था। मैडीकल विज्ञान में अभूतपूर्व उन्नति के कारण अब इस तथ्य का पता लगा लिया गया है कि मिरगी स्वयं में कोई रोग नहीं अपितु रोग का एक लक्षण है।

इसका सम्बन्ध सेन्ट्रल नर्विस सिस्टम (central nervous system) अर्थात मस्तिष्क-दिमाग से है। दिमाग में अचानक कोई बाधा आ जाने के कारण मिरगी का दौरा पड़ता है

कई तरह की जाँच – Electroencephalography (EEG ), lumbar puncture and examination of the cerebro-spinal fluid, x-rays, CT scan, radioisotopic scanning, blood and urine tests से अब यह पता लग जाता है कि किसी व्यक्ति को मिरगी है या कोई अन्य रोग । अगर उपचार की दृष्टि से हम इसे रोग का नाम दे लें तो यह कई प्रकार का रोग होता है। अब तक यह पता नहीं लग सका है यह किस समय तथा कैसे होता है।

कई डाक्टरों का यह मत है कि यह रोग मस्तिष्क में कोशिकाओं की खराबी, आनुवांशिक, अंतड़ियों तथा पाचन की गड़बड़ी, असहनीय सदमा, सिर में चोट लगने, मेनिनजाइटिस, किसी लम्बी बीमारी तथा अधिक मद्यपान के कारण होता है। मिरगी का दौरा प्रायः तब पड़ता है जब शरीर के अन्दर विषाक्त पदार्थ इकट्ठा होकर हृदय तथा मस्तिष्क पर दबाव डालता है। अधिकतर व्यक्तियों को यह रोग जवानी की उम्र में होता है जोकि प्रायः पढ़ाई, किसी प्रकार की ट्रेनिंग या व्यवसाय में लगने की अवस्था होती है।

डाक्टरों के अनुसार मिरगी का तीन प्रकार से इलाज किया जा सकता है – अधिकतर रोगियों का दवाइयों से, कुछ रोगियों का ऑपरेशन से, तथा कई रोगियों का विभिन्न तरीकों यथा खुराक तथा रहन-सहन के ढंग में परिवर्तन इत्यादि । कई डाक्टर यह भी कहते हैं कि दवाइयों से यह रोग कंट्रोल तो हो जाता है पर दूर नहीं होता। अतः बहुत से रोगियों को तो जिंदगी भर दवाई खानी पड़ती है, हाँ इतना अवश्य है कि कुछ समय का अन्तर डाल कर सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो दवाइयाँ मिरगी के रोगी को दी जाती है उन सब के कोई न कोई कुप्रभाव अवश्य हैं यथा सुस्ती, धुंधला या दो दो दिखना (blurrred vision or double vision), जी मचलाना, के होना, गुस्सा आना, डिप्रेशन होना तथा श्वास का कोई विकार हो जाना इत्यादि ।

एक्युप्रेशर द्वारा मिरगी का उपचार

मिरगी का रोग हमेशा के लिए दूर करने के लिए मस्तिष्क ( आकृति नं० 1), स्नायुसंस्थान ( आकृति नं० 1 तथा 3), हृदय, जिगर, आमाशय तथा अंतड़ियों के प्रतिविम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए।

इसके अतिरिक्त चारों टखनों के साथ-साथ प्रेशर दें जैसाकि आकृति नं० 6 में दिखाया गया है। गर्दन तथा पीठ पर रीढ़ की हड्डी के दोनों तरफ प्रेशर देना भी इस रोग में बहुत लाभदायक है।

मिरगी के दौरे की स्थिति में नाक के नीचे (आकृति नं० 9) तथा पैर के ऊपरी भाग में (आकृति नं० 8) प्रेशर देने से मिरगी का दौरा एकदम दूर हो जाता है और रोगी को होश आ जाती है।

आकृति नं० 9

अच्छा तो यह है कि इस रोग को हमेशा के लिए दूर करने के लिए हाथों तथा पैरों में उन सब प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर नियमित रूप से प्रेशर दिया जाए जो दबाने से दर्द करें।

इस रोग के व्यक्तियों को अपने आहार की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। उन्हें अपने भोजन में कच्ची सब्जियाँ तथा फल अधिक खाने चाहिए, तले हुए तथा उत्तेजक पदार्थ नहीं लेने चाहिए, उबली सब्जियाँ तथा फल अधिक खाने चाहिए, उबली सब्जियाँ लें, खाने में ताजा निकला मक्खन लें तथा लहसुन का सेवन करें ऐसे रोगियों को तंग वस्त्र नहीं पहनने चाहिए।

कोई भी वाहन चलाना ऐसे व्यक्तियों के लिए ठीक नहीं क्योंकि रोग की अवस्था में कहीं भी दौरा पड़ सकता है। जहाँ तक हो सके प्रसन्नचित रहना चाहिए और अपनी दैनिकचर्या में थोड़ा बहुत परिवर्तन लाना चाहिए ताकि दिमाग पर बोझ न पड़े।

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