एक्युप्रेशर चिकित्सा के सिद्धांत एवं कार्यप्रणाली
कोई भी व्यक्ति अस्वस्थ नहीं रहना चाहता पर सोचने की बात यह है कि मनुष्य रोगी क्यों होता है? रोग होने के दो प्रमुख कारण हैं पहली अवस्था में मनुष्य अपनी लापरवाही, गलत रहन-सहन, अस्वच्छता, असंतुलित आहार, हानिकारक पदार्थों का सेवन, चिंता, मानसिक तनाव तथा व्यायाम हीनता के कारण रोगी होता है। दूसरी अवस्था में व्यक्ति अपनी लापरवाही के कारण नहीं अपितु दूषित वातावरण, संक्रमण, चोट आदि लगने, बुढ़ापा आने तथा कुछ पैतृक त्रुटियों के कारण रोगी होता है जो मूलरूप से उसकी अपनी समर्थता से बाहर होते हैं।
शरीर की प्रत्येक आयु में और प्रत्येक परिस्थिति में पूर्णरूप से निरोग रखना कठिन कार्य है क्योंकि शरीर तो रोगों का घर है। रोग की अवस्था में किसी न किसी चिकित्सा पद्धति का सहारा लेना पड़ता है।
जब से मनुष्यता का सभ्य समाज के रूप में विकास हुआ है तब से ही चिकित्सक लगातार इस कोशिश में हैं कि अधिक से अधिक प्रभावशाली चिकित्सा पद्धतियों तथा औषधियों की खोज की जाए ताकि मनुष्य लम्बे समय तक निरोग रह सके और अगर रोगग्रस्त हो भी जाए तो शीघ्र स्वस्थ हो सके।
एक्युप्रेशर प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति
पुरातन काल से लेकर आधुनिक समय तक शरीर के अनेक रोगों तथा विकारों को दूर करने के लिए जितनी चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हुई हैं उनमें एक्युप्रेशर सबसे पुरानी तथा सबसे अधिक प्रभावशाली पद्धति है। इतना अवश्य है कि प्राचीन समय से अब तक इसका कोई एक नाम नहीं रहा है। विभिन्न देशों में विभिन्न समय में इस पद्धति को कई नाम दिए गए । यह पद्धति इसलिए भी अधिक प्रभावी है क्योंकि इसका सिद्धांत पूर्णरूप से प्राकृतिक है। इस पद्धति की एक अन्य खूबी यह है कि प्रेशर द्वारा इलाज बिल्कुल सुरक्षित (safe) होता है तथा इसमें किसी प्रकार के नुकसान (side effect) का बिल्कुल डर नहीं है।
एक्युप्रेशर पद्धति के अनुसार समस्त रोगों को दूर करने की शक्ति शरीर में हमेशा मौजूद रहती है पर इस कुदरती शक्ति को रोग निवारण के लिए सक्रिय करने की आवश्यकता होती है ।
आयुर्वेद की पुरातन पुस्तकों में देश में प्रचलित एक्युपंचर पद्धति का वर्णन है । प्राचीन काल में चीन से जो यात्री भारतवर्ष आए, उन द्वारा इस पद्धति का ज्ञान चीन में पहुँचा जहाँ यह पद्धति काफी प्रचलित हुई। चीन के चिकित्सकों ने इस पद्धति के आश्चर्यजनक प्रभाव को देखते हुए इसे व्यापक तौर पर अपनाया और इसको अधिक लोकप्रिय तथा समृद्ध बनाने के लिए काफी प्रयास किया। यही कारण है कि आज सारे संसार में यह चीनी चिकित्सा पद्धति के नाम से मशहूर है ।
एक्युप्रेशर पद्धति जिसका आधार प्रेशर या गहरी मालिश है, के सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय चिकित्सकों जिनमें चरक का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है तथा यूनान, मिस्र, तुर्की तथा रोम के कई प्राचीन चिकित्सकों ने भी अनेक शारीरिक एवं मानसिक रोगों को दूर करने, रक्त संचार को ठीक करने, मांसपेशियों को सशक्त बनाने तथा सम्पूर्ण शरीर विशेषकर मस्तिष्क तथा चित को शांत रखने के लिए गहरी मालिश अर्थात् एक्युप्रेशर की सिफारिश की थी । कहते हैं कि जुलियस सीजर जो नाड़ी रोग से पीड़ित था, मालिश से ही ठीक हुआ था । इन चिकित्सकों का यह विचार था कि दबाव के साथ मालिश करने से रक्त का संचार ठीक हो जाता है जिस कारण शरीर की शक्ति और स्फूर्ति बढ़ जाती है । शरीर की शक्ति बढ़ने से विभिन्न अंगों में जमा हुए अवांछनीय तथा विषपूर्ण पदार्थ पसीने, मूत्र तथा मल द्वारा शरीर से बाहर चले जाते है जिस से शरीर निरोग हो जाता है।
एक्युप्रेशर या गहरी मालिश साधारण प्रकार की मालिश नहीं है। एक्युप्रेशर का मतलब है पैरों, हाथों, चेहरे तथा शरीर के कुछ खास केन्द्रों पर दबाव डालना। इन केन्द्रों को रिस्पान्स सेंटर (Response Centres) या रिफ्लेक्स सैंटर (Reflex Centres) कहते हैं । हिन्दी में इन्हें प्रतिबिम्ब केन्द्र कह सकते हैं। रोग की अवस्था में इन केन्द्रों पर प्रेशर देने से काफी दर्द होता है क्योंकि तब ये बहुत ही नाजुक (highly sensitive) होते हैं । प्रत्येक रिस्पान्स केन्द्र का पैरों, हाथों तथा चेहरे पर लगभग मटर के दाने जितना आकार होता है। प्रत्येक रिस्पान्स केन्द्र को दबाने से शरीर में रोग की प्रतिक्रिया शक्ति जागृत होती है। यही शक्ति वास्तव में रोग दूर करती है ।
एक्युप्रेशर के चमत्कारी प्रभाव को देखते हुए अमरीका, कैनेडा, इंग्लैंड तथा जर्मनी जैसे विकसित देशों में भी अब यह पद्धति काफी प्रचलित एवं लोकप्रिय हो रही है। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि कई दूसरी चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों ने भी एक्युप्रेशर में काफी रुचि लेनी शुरू कर दी है। अनेक रोगों में एक्युप्रेशर बिना दवा तथा बिना ऑपरेशन के रोग निवारण की प्रभावशाली विधि है।
इस पद्धति की एक अन्य विशेषता यह है कि इस के द्वारा केवल अनेक रोगों का इलाज नहीं किया जाता अपितु अनेक रोगों को दूर भी रखा जा सकता है जिसे रोग निरोधक उपाय (preventive treatment) कहते हैं। इस तरह इस पद्धति को व्यापक तौर पर अपनाने से जहाँ लाखों लोग अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं उसके साथ अपने तथा राष्ट्र के करोड़ों रुपये की बचत भी कर सकते हैं जो कि प्रतिवर्ष स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किये जाते हैं।
एक्युप्रेशर तथा एक्युपंचर में अन्तर
एक्युप्रेशर (Acupressure) दो शब्दों Acus + pressure से बना है। Acus लैटिन का शब्द है जिसका अर्थ सूई (needle) तथा pressure अँग्रेजी का शब्द है जिसका अर्थ दबाव डालना है । व्यावहारिक रूप में एक्युप्रेशर का अभिप्राय सूइयों द्वारा इलाज से नहीं है। सूइयों द्वारा इलाज का नाम एक्युपंचर (Acupuncture) है। यद्यपि प्रचलित रूप में एक्युप्रेशर तथा एक्युपंचर दोनों ही चीनी पद्धतियाँ मानी जाती हैं तथा दोनों एक दूसरे से मिलती जुलती हैं पर इनमें मुख्यतः यह अन्तर है कि एक्युपंचर में रोग निवारण के लिए सूइयों का प्रयोग किया जाता है अर्थात एक विशेष प्रकार की सूइयाँ एक खास ढंग से शरीर के कई भागों पर (key points) लगाई जाती है। एक्युप्रेशर पद्धति में सूइयों की बजाए हाथों के अंगूठों, अँगुलियों या किन्हीं उपकरणों से रोग से सम्बन्धित केन्द्रों पर दबाव डाला जाता है जिसे प्रेशर, डीप मसाज या गहरी मालिश (compression massage) कहते हैं।
शरीर के विभिन्न अंगों से सम्बन्धित ये केन्द्र हाथों, पैरों, चेहरे तथा कानों पर स्थित हैं । रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ तथा शरीर के कई अन्य भागों पर भी अनेक एक्युप्रेशर केन्द्र हैं। जिन्हें प्रमुख रिफ्लैक्स केन्द्र (Main Reflex Centres) कहा जा सकता है। इन केन्द्रों की पहचान एवं जाँच प्रत्येक व्यक्ति आसानी से कर सकता है। वैसे तो चीनी चिकित्सकों ने सारे शरीर पर सैकड़ो एक्युप्रेशर केन्द्रों का पता लगाया है लेकिन उन सब केन्द्रों की पहचान करना एक साधारण व्यक्ति के लिए कठिन कार्य है।
सामान्य रोगों के उपचार के लिये इन सब केन्द्रों की पहचान करना जरूरी भी नहीं है। केवल पैरों, हाथों, चेहरे, कानों, पीठ तथा शरीर के कुछ भागों पर प्रमुख केन्द्रों पर प्रेशर डालने से ही सारे रोगों को दूर किया जा सकता है। जैसाकि पहले बताया गया है पैरों, हाथों, चेहरे तथा कानों पर लगभग एक जैसे एक्युप्रेशर केन्द्र हैं पर एक्युप्रेशर चिकित्सा में पैरों का प्रथम स्थान है। पैरों में प्रतिबिम्ब केन्द्रों की जाँच आसानी से हो जाती है और इन पर प्रेशर भी आसानी से दिया जा सकता है।
प्रतिबिम्ब केन्द्रों की ठीक जाँच हो जाने और ठीक प्रेशर देने के कारण सारे रोग शीघ्र दूर हो जाते हैं। जाँच तथा प्रभाव के सम्बन्ध में दूसरा नम्बर हाथों के प्रतिबिम्ब केन्द्रों का है। चेहरे, कानों, पीठ तथा शरीर के विभिन्न भागों पर स्थित अनेक एक्युप्रेशर केन्द्र भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं।
अच्छा तो यह है कि रोग की अवस्था में पैरों, हाथों, चेहरे, कानों तथा पीठ पर स्थित रोग से सम्बन्धित एक से अधिक प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर दिया जाए। ऐसा करने से काफी अच्छा प्रभाव पड़ता है और रोग शीघ्र दूर हो जाता है। चेहरे तथा कानों पर विभिन्न एक्युप्रेशर केन्द्रों पर प्रेशर हाथों के अँगूठों या अँगुलियों के साथ देना चाहिए और वह भी धीरे-धीरे तथा हलका देना चाहिए। इन केन्द्रों पर किसी प्रकार के किसी उपकरण (gadgets) का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
एक्युप्रेशर पद्धति के सिद्धांत
एक्युप्रेशर पद्धति के अनुसार मनुष्य को शारीरिक (physical) तथा भावात्मक (emotional) रूप से दो पृथक नहीं अपितु एक अभिन्न इकाई माना गया है। इस पद्धति के अनुसार प्रत्येक रोग का इलाज इसी सिद्धांत के अनुरूप किया जाता है।
इस पद्धति का जो दूसरा प्रमुख सिद्धांत है और जिसका वैज्ञानिक आधार है उसके अनुसार रक्तवाहिकाओं (blood vessels ) तथा स्नायुसंस्थान (nervous system) की समस्त छोटी-बड़ी नाड़ियों के आखिरी हिस्से (nerve endings) हाथों तथा पैरों में होते हैं अर्थात् हाथों तथा पैरों की नाड़ियों का शरीर के सारे अंगों से सम्बन्ध है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि शरीर के विभिन्न अंगों से सम्बन्धित नाड़ियां, पैरो तथा हाथों में कौन-कौन से भाग में पहुँचती हैं जिससे यह सहज ही पता लग जाए कि यह नाड़ी हृदय (heart) से सम्बन्धित है, यह जिगर (liver) से सम्बन्धित है, यह मस्तिष्क (brain) से सम्बन्धित है और यह गुर्दे (kidney) से सम्बन्धित है इत्यादि ।
इस प्रश्न का भी वैज्ञानिक आधार पर हल ढूँढा गया है। चिकित्सा के क्षेत्र में काफी लम्बी खोज के बाद अब यह रहस्य की बात नहीं रही कि शरीर में रक्त वाहिकाओं (blood vessles), लसीकातंत्र (lymphatic system) तथा स्नायुसंस्थान (nervous system) का जाल किस प्रकार फैला हुआ है तथा कौन-कौन सी नाड़ी शरीर के किस-किस भाग से गुजर कर किस-किस अंग तक पहुँचती है।
स्नायुसंस्थान ही शारीरिक चेतना को बनायें हुए है। इसका जाल शरीर के सारे हिस्सों में फैला हुआ है।
शरीर के प्रत्येक भाग में स्नायु तन्तुओं का फैला हुआ जाल | प्रत्येक रोग की अवस्था में स्नायुसंस्थान सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना जरूरी है। क्योंकि बहुत से रोगों का कारण स्नायुसंस्थान में कोई न कोई विकार होता है ।
उपरोक्त तथ्य को आसानी से समझने के लिए सारे शरीर को सिर से लेकर पैरों तक, लम्बे रुख में 10 भागों में (सिर के मध्य हिस्से से दाहिनी तरफ 5 भाग तथा सिर के मध्य हिस्से से बायीं तरफ 5 भाग) बाँटा गया है अर्थात् पैरों तथा हाथों की अँगुलियों को आधार मान कर सिर तक सारे शरीर में 10 समानान्तर लाइनें खींची जाएं जैसाकि आकृति नं० 1 में दर्शाया गया है तो यह सहज ही पता चल जाता है कि शरीर का कौन-सा अंग पैरों तथा हाथों के कौन-से भाग से सम्बन्धित है।

इसी तरह चौड़ाई के रुख में भी शरीर को तीन भागों में विभाजित किया गया है जैसाकि आकृति नं० 2 में दर्शाया गया है।

पैरों तथा हाथों में यही केन्द्र वस्तुतः विभिन्न अंगों के प्रतिबिम्ब केन्द्र (Reflex Centres or Response Centres) कहलाते हैं। कई चिकित्सक पैरों, हाथों, चेहरे तथा कानों के इन केन्द्रों को रिफ्लैक्स बटन भी कहते हैं क्योंकि इन केन्द्रों का शरीर के विभिन्न अंगों से उसी प्रकार सम्बन्ध है जिस प्रकार बिजली के बटन और बल्ब का होता है।
एक्युप्रेशर अनुसार रोग के कारण
एक्युप्रेशर पद्धति के कई चिकित्सकों ने अपने अनुभव के आधार पर रोग के अनेक कारण बताए हैं। यहाँ केवल उन्हीं कारणों का वर्णन किया जाएगा जोकि अधिक तर्कसंगत हैं तथा जो रोग निवारण में अधिक प्रभावशाली हैं।
1. एक विचार यह है कि मनुष्य रोगी तब होता है जब किसी विशेष अंग में रक्त का प्रवाह ठीक नहीं रहता या उस अंग से सम्बन्धित स्नायुसंस्थान (nervous system) ठीक काम नहीं करता, रक्तवाहिकाओं में कोई विकृति आ जाती है या वे सिकुड़ जाती हैं। ऐसी अवस्था में शरीर का वह अंग या तो शीत (cold) सा हो जाता है या उष्ण (overheated) हो जाता है। यह दोनों अवस्थाएँ बीमारी की सूचक हैं। एक्युप्रेशर का मुख्य उद्देश्य यह है कि प्रेशर द्वारा रक्त का प्रवाह तथा स्नायुसंस्थान का कार्य ठीक किया जाए जिससे रोग दूर हो जाए।
2. एक अन्य विचार यह है कि रोग की अवस्था में पैरों तथा हाथों में रक्तवाहिकाओं के आखिरी हिस्सों के स्थान पर कुछ क्रिस्टल (crystals) बहुत सूक्ष्म रसायनिक पदार्थ अर्थात् कण से जमा हो जाते हैं जिस कारण कई अंगों को रक्त का प्रवाह ठीक नहीं रहता या नाड़ी मण्डल का सम्पर्क ढीला पड़ जाता है। जब तक ये क्रिस्टल अपने स्थान पर बने रहते हैं तब तक उन अंगों को रक्त का प्रवाह सामान्य नहीं हो पाता और स्नायुसंस्थान की क्रिया भी सुव्यवस्थित नहीं हो पाती जिस कारण रोग की अवस्था यथापूर्व बनी रहती है। एक विचार यह भी है कि क्रिस्टल जमा हो जाने के कारण ही रोग हो जाता है क्योंकि ये विभिन्न अंगों में रक्त प्रवाह तथा स्नायुसंस्थान की क्रिया में बाधा डालते हैं।
3. समस्त अंगों को रक्त की नियमित आपूर्ति बहुत जरूरी है क्योंकि रक्त द्वारा ही सारे पौष्टिक तत्त्व विभिन्न अंगों तक पहुँचते हैं, उन्हें शक्ति प्रदान करते हैं तथा उन्हें सजीव रखते हैं। रक्त ही शरीर के विभिन्न अंगों से व्यर्थ और अवांछित पदार्थ गुर्दों तक पहुँचाता है। और गुर्दे अपनी कार्य-प्रणाली द्वारा उन्हें शरीर से बाहर निकालते हैं। अगर रक्तवाहिकाओं द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को रक्त का प्रवाह ठीक न हो तो अनेक अनावश्यक पदार्थ शरीर से बाहर जाने की बजाय शरीर में ही एकत्र होना शुरू हो जाते हैं जिस कारण शरीर रोगी हो जाता है।
4. चीनी चिकित्सकों की यह भी धारणा है कि शरीर तब रोगी होता है जब शरीर के किसी भाग में कई केन्द्रों पर कुछ खास तरह के विकार पैदा हो जाते हैं अर्थात् कई केन्द्र उष्ण (hot), कई शीत (cold), कई चेतनाशून्य ( numb ), कई चिकने (oily), कई शुष्क (dry), कई दुःखद (painful ), कई कठोर (hard), कई रंगहीन (discoloured ) तथा कई धब्बेदार या दागदार (stained ) हो जाते हैं। इस तरह के किसी भी विकार के कारण शरीर का कुदरती सन्तुलन बिगड़ जाता है और शरीर रोगी हो जाता है ।
5. यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि हमारा शरीर पाँच तत्त्वों अर्थात् पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु तथा, आकाश से बना है। इन पाँच तत्त्वों का संचालन शरीर की बिजली करती है जिसे बायो-इलेक्ट्रिसिटी (bio-electricity) अथवा बायो-एनर्जी (bio-energy) कहते हैं ।
प्रसिद्ध एक्युप्रेशर चिकित्सक, एफ० एम० होस्टन (The Healing Benefits of Acupressure) के अनुसार पैरों, हाथों तथा शरीर के विभिन्न भागों पर स्थित जो केन्द्र दबाने से पीड़ा करते हैं, वहाँ से सम्बन्धित अंगों की बिजली ‘लीक’ (leak) करती है अर्थात् शरीर से बाहर जाना शुरू कर देती है। फलस्वरूप सम्बन्धित अंगों में किसी न किसी प्रकार का विकार आ जाता है । जब हम इन केन्द्रों पर प्रेशर देते हैं तो ‘लीकेज’ (leakage ) बन्द हो जाती है। ‘लीकेज’ बन्द होने से शक्ति रूपी बिजली का सम्बन्धित अंगों को प्रवाह सामान्य हो जाता है जिस कारण रोग दूर हो जाते हैं ।
एक्युप्रेशर का रोग निवारण सिद्धांत
जैसे पहले बताया गया है, शरीर तब रोगी होता है जब शरीर में व्यर्थ पदार्थ इकट्ठे हो जाते हैं और प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। एक्युप्रेशर चिकित्सकों के अनुसार प्रेशर देने से शरीर में सात प्रमुख प्रभाव पड़ते हैं जो इस प्रकार हैं:-
- एक्युप्रेशर चमड़ी में स्फूर्ति पैदा करता है ।
- यह शरीर में आवश्यक तत्वों का प्रसार करता है ।
- यह माँसपेशी तन्तुओं (muscular tissues) में लचक पैदा करता है।
- यह अस्थिपंजर (bones) में विकृतियों को दूर करता है।
- एक्युप्रेशर स्नायुसंस्थान (nervous system) के किसी भी भाग में पैदा हुई विकृति को दूर करता है।
- इस पद्धति द्वारा समस्त ग्रंथियों (endocrine glands) का कार्य नियमित हो जाता है। एक्युप्रेशर द्वारा आन्तरिक अंगों (internal organs) के साधारण कार्य में तेजी लायी जा सकती है।
इस पद्धति के सिद्धांत के अनुसार रोगों को दूर करने की शक्ति शरीर में हमेशा मौजूद होती है, केवल उस शक्ति को जागृत करने की जरूरत होती है।
एक्युप्रेशर द्वारा यह शक्ति किस प्रकार जागृत होकर अपना काम करती है इस के प्रति निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य है कि अनेक प्रकार के रोगों को दूर करने की यह आश्चर्यजनक पद्धति है। अनेक पुराने और पेचीदा रोग जो किसी अन्य पद्धति से दूर नहीं हो पाते, इस पद्धति द्वारा बहुत थोड़े समय में दूर हो जाते हैं।
यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि एक्युप्रेशर का किसी अन्य पद्धति से तनिक भी टकराव नहीं। अगर कोई रोगी दवा आदि खाने के साथ एक्युप्रेशर द्वारा भी इलाज करना चाहे, तो वह ऐसा भी कर सकता है। कुछ रोगों यथा दमा, मनोविकार, मधुमेह, गुर्दे तथा हृदय रोगों में रोगी को एकदम दवा नहीं छोड़नी चाहिए। ऐसे रोगों में एक्युप्रेशर द्वारा इलाज के साथ डाक्टर के परामर्श से ही दवा की मात्रा कम करनी चाहिए या दवा छोड़नी चाहिए।
एक्युप्रेशर द्वारा किसी भी रोग का उपचार करने के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण बात है कि पैरों तथा हाथों में रोग सम्बन्धी विभिन्न रिफ्लैक्स केन्द्रों की भलीभाँति जाँच की जाए तथा ठीक तरह प्रेशर दिया जाए ।
यहाँ यह भी बताना उपयुक्त होगा कि पैरों में रिफ्लैक्स केन्द्रों की जाँच शीघ्र हो जाती है और पैरों में दिया प्रेशर हाथों में दिये प्रेशर से शीघ्र एवं अधिक असर करता है। हाथों में रिफ्लैक्स केन्द्रों की शीघ्र पहचान करना इसलिए भी कठिन होता है क्योंकि हमारे हाथ प्रायः कुछ न कुछ काम करते रहते हैं जिस कारण प्रतिबिम्ब केन्द्र अधिक नाजुक नहीं होते और दबाने से उतना दर्द नहीं करते जितना कि पैरों में प्रतिबिम्ब केन्द्र दर्द करते हैं। इसके अतिरिक्त पैरों में प्रतिबिम्ब केन्द्र हाथों की अपेक्षा अधिक स्थान में फैले होते हैं क्योंकि पैरों का आकार हाथों से कुछ बड़ा होता है। हाँ, जो लोग हाथों से मेहनत का कोई काम नहीं करते उनके हाथों में प्रतिबिम्ब केन्द्रों की जाँच आसानी से हो जाती है। इसके विपरीत जो लोग नंगे पाँव चलते हैं और जिनके तलवे काफी सख्त होते हैं उनके पैरों में प्रतिबिम्ब केन्द्रों की पहचान तनिक कठिनाई से होती है।
रोग का दर्पण – प्रतिबिम्ब केन्द्र
एक्युप्रेशर द्वारा किसी भी रोग का इलाज करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि रोग के लक्षण क्या हैं, रोग किस अंग से सम्बन्धित है तथा उस अंग से सम्बन्धित पैरों, हाथों तथा शरीर के दूसरे भागों में कौन-कौन से प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं।
कई रोगियों को यह स्वयं पता होता है कि उन्हें क्या रोग है तथा अमुक रोग में कौन-कौन से अंग सम्बन्धित हैं पर बहुत से रोगियों को अपने रोग के प्रति ठीक ज्ञान नहीं होता। वे केवल इतना ही बता सकते हैं कि उन्हें क्या अनुभव हो रहा है। कई बार अनेक अस्पतालों में कई तरह के परीक्षण करवाने और अनुभवी डाक्टरों को दिखाने पर भी रोग का असली कारण पता नहीं लगता जिस कारण कोई भी दवा गुणकारी सिद्ध नहीं होती। गलत तथा बदल बदल कर अधिक दवाइयाँ खाने से कई बार दवाइयाँ प्रतिकूल असर भी करने लगती हैं, एक से अनेक रोग हो जाते हैं और रोगी की अवस्था दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जाती है।
एक्युप्रेशर पद्धति द्वारा विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों की जाँच करने से यह आसानी से पता लगाया जा सकता है कि शरीर के कौन-कौन से अंग अपना कार्य भलीभाँति नहीं कर रहे या शरीर के किस भाग में कोई रुकावट है। कई बार प्रयोगशाला के परीक्षण (laboratory tests) भी रोग का ठीक कारण जानने में सहायता नहीं कर पाते पर प्रतिबिम्ब केन्द्रों के परीक्षण से केवल कुछ मिनटों में यह पता लग जाता है कि किस अंग में कोई विकार है या रोग का असली कारण क्या है। इसीलिए प्रतिबिम्ब केन्द्रों को रोग का दर्पण कहा जाता है।
हमारा निजी परामर्श है कि चिरकालिक रोगों का एक्युप्रेशर द्वारा इलाज शुरू करने से पहले किसी अनुभवी एवं योग्य डाक्टर से पूरा परीक्षण (objective diagnosis) करा लेना चाहिए जिससे यह निश्चित हो जाए कि कैंसर या कोई ऐसा रोग तो नहीं जिसके लिए शीघ्र डाक्टरी सहायता की जरूरत है। प्रतिबिम्ब केन्द्रों को दबाने से इतना तो आसानी से पता लग जाता है कि अमुक अंग में कोई विकृति है या नहीं पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह फेफड़ों का साधारण दर्द नहीं अपितु फेफड़ों का कैंसर है या आमाशय का साधारण दर्द नहीं अपितु आमाशय का कैंसर है या गर्भाशय का साधारण दर्द नहीं अपितु गर्भाशय का कैंसर है इत्यादि ।
ऐसे रोगों में तुरंत डाक्टरी सहायता की आवश्यकता होती है। इतना अवश्य है कि डाक्टरी इलाज के साथ एक्युप्रेशर से भी काफी लाभ पहुँच सकता है।
प्रतिबिम्ब केन्द्रों की जाँच
प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने से यह पता लग जाता है कि उनसे सम्बन्धित अंग अपना-अपना कार्य ठीक तरह कर रहे हैं या उनमें कोई विकार आ गया है।
प्रतिबिम्ब केन्द्रों की जाँच करते समय यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि जिस प्रकार सारे लोगों के हाथों तथा पैरों का आकार बराबर नहीं होता, उसी प्रकार प्रतिबिम्ब केन्द्रों का स्थान भी हाथों तथा पैरों की आकृति के अनुसार थोड़ा बहुत ऊपर-नीचे तथा दायें-बायें हो सकता है।
प्रेशर हाथों के अँगूटों, अँगुलियों, लकड़ी अथवा प्लास्टिक के किन्हीं उपकरणों अर्थात् किसी से भी अपनी सुविधानुसार दिया जा सकता है।
प्रत्येक केन्द्र पर न ही बहुत कम और न ही बहुत जोर से प्रेशर देकर जाँच करनी चाहिए । अगर किसी केन्द्र पर प्रेशर देने से रोगी असहनीय दर्द अनुभव करे तो समझो उस केन्द्र से सम्बन्धित अंग में कोई विकार है या वह अंग अपना कार्य भलीभाँति नहीं कर रहा । जिन केन्द्रों पर प्रेशर देने से रोगी दर्द अनुभव नहीं करता उसका अभिप्राय यह है कि वे अंग अपना कार्य ठीक कर रहे हैं।
पैरों तथा हाथों के सब केन्द्रों पर दबाव देकर जाँच करनी चाहिए। जिन स्थानों पर प्रेशर देने से रोगी असहनीय दर्द अनुभव करे उन सब की सूची बना लेनी चाहिए।
कई बार रोग की अवस्था में एक अंग नहीं अपितु अनेक अंग अपना काम ठीक प्रकार नहीं कर रहे होते। प्रायः ऐसा भी होता है कि एक ही समय एक व्यक्ति अनेक रोगों से पीड़ित होता है। ऐसी स्थिति में सारे सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना जरूरी होता है। रोगी अपने हाथों तथा पैरों में इन केन्द्रों की परीक्षा स्वयं भी कर सकता है या किसी अन्य व्यक्ति की सहायता भी ले सकता है। दुःखद (painful ) केन्द्रों की जाँच कर लेने के बाद अगला कार्य प्रेशर द्वारा रोग को दूर करना है।
प्रेशर देने से हाथों तथा पैरों में रक्त वाहिकाओं में जमा हुए व्यर्थ पदार्थों के क्रिस्टल धीरे-धीरे अपना स्थान छोड़ देते हैं और रक्त प्रवाह में मिलकर पसीने या गुर्दों की प्रणाली द्वारा शरीर से बाहर निकल जाते हैं। प्रेशर से ज्यों-ज्यों क्रिस्टल अपना स्थान छोड़ते जाते हैं, त्यों-त्यों रोग कम होता जाता है। ज्यों-ज्यों रोग कम होता जाता है त्यों-त्यों प्रेशर देने से प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दर्द भी कम अनुभव होने लगता है। दो-चार बार प्रेशर देने के बाद ही रोगी को पता लगने लगता है कि वह अब ठीक हो रहा है। जब रोग पूरी तरह दूर हो जाता है तो प्रेशर से दर्द या तो बिल्कुल नहीं होता या फिर मामूली सा होता है।
इस पद्धति द्वारा रोग निवारण में कितना समय लगता है, यह व्यक्ति व्यक्ति तथा रोग-रोग पर निर्भर करता है लेकिन इतना अवश्य है कि इससे आश्चर्यजनक तथा शीघ्र आराम आता है। चिरकालिक रोग नियमित रूप से प्रेशर देने से केवल कुछ दिनों में ही दूर हो जाते हैं । अगर कोई रोगी पूरी तरह ठीक न हो तो आंशिक आराम अवश्य मिलता है। इस पद्धति द्वारा कई ऐसे रोगी ठीक हुए हैं जो बड़े-बड़े अस्पतालों और कई अनुभवी चिकित्सकों से इलाज कराने तथा मँहगी से मँहगी दवा खाने के बाद भी यथापूर्वक रोग की अवस्था में थे।
प्रेशर देने का ढंग
प्रेशर देने का ढंग सबसे अधिक महत्त्व रखता है क्योंकि गलत ढंग से प्रेशर देने से वाँछित लाभ नहीं होता। प्रेशर देने के प्रति महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि अँगूठा या अँगुली एक ही स्थान पर टिकाकर अगर दबाव घड़ी की सुई की तरह गोल परिधि (circular motion in clockwise direction) में बाएँ से दाईं तरफ दिया जाये तो उसका अधिक असर होता है। वैसे साधारण विधि से भी अँगूठे या उपकरण से प्रेशर दिया जा सकता है। दोनों विधियाँ ठीक हैं।
पैरों तथा हाथों के ऊपरी भाग, पैरों तथा हाथों की अँगुलियों, टाँगों के निचले भाग, टखनों तथा एड़ियों के साथ-साथ, कानों तथा बाजुओं के अग्रिम भाग पर तेल आदि लगाकर मालिश की भांति भी प्रेशर दिया जा सकता है। पीठ पर उपकरणों से नहीं अपितु अंगूठों या हथेलियों से ही प्रेशर देना चाहिए।
प्रेशर देते समय इतना ध्यान रखें कि उसका प्रभाव चमड़ी की ऊपरी सतह से नीचे तक पहुँच जाये। इस बारे में एक तर्कसंगत कथन है कि जब शरीर के अन्दर कोई विकार आ आता है तो उसका प्रभाव चमड़ी की ऊपरी सतह तक अनुभव होता है। ठीक इसी प्रकार चमड़ी पर दिए प्रेशर का प्रभाव आंतरिक अंगों तक पहुँचता है जो रोग दूर करने में सहायक होता है।
प्रेशर देने के लिए विभिन्न उपकरण
अँगुलियों तथा अँगूठों के अतिरिक्त लकड़ी, सख्त रबड़ या प्लास्टिक के कई उपकरणों (gadgets) बाजार में उपलबध हैं। उनके साथ भी प्रेशर दिया जा सकता है । उपकरण सख्त पर मुलायम होंने चाहिये जिनसे ठीक दबाव दिया जा सके पर जिनसे चमड़ी को कोई नुकसान न हो । देखने में साधारण से ये उपकरण बहुत ही उपयोगी होते हैं ।
उपकरणों के प्रयोग के अतिरिक्त पैरों के विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने के कई लोगों ने अपनी सुविधानुसार कुछ ढंग निकाले हैं। कई लोगों ने अपने घरों की वाटिकाओं में छोटे-छोटे गोल पत्थर भूमि पर बिछाए हैं जिन पर वे सवेरे-शाम नंगे पाँव चलते हैं, वाटिका में सैर भी हो जाती है और तलवों में सारे प्रतिबिम्ब केन्द्रों को प्रेशर भी मिल जाता है।
रीढ़ की हड्डी, जिगर, आँखों तथा स्नायुतंत्र के अनेक रोगों, सिर दर्द, मोटापा तथा मानसिक तनाव को दूर करने के लिए लकड़ी की खड़ाऊँ . को पैरों में डालकर चलना भी काफी लाभकारी रहता है। पैरों में इनके डालने से अँगूठे तथा साथ वाली अँगुली तथा अन्य कई प्रतिबिम्ब केन्द्रों को स्वाभाविक तौर पर प्रेशर मिल जाता है।
एक्युप्रेशर के अतिरिक्त हाथों तथा पैरों की अँगुलियों तथा अँगूठों के पहले जोड़ों (first joints of all fingers and thumbs of both hands and feet) पर रबड़ बैंड बाँधने से भी अनेक रोगों विशेषकर मानसिक रोगों, अधरंग, मुँह का लकवा, सिरदर्द, दाँत दर्द, आँखों तथा कानों के रोग, हाथों तथा पैरों में जकड़न व गठिया इत्यादि में लाभ पहुँचता है। रबड़ बैंड बाँधने की विधि आकृति नं० 3 में दर्शायी गई है।

रबड़ बैंड लगभग 1 से 5 मिनट तक बाँध कर रखें। पाँच मिनट से अधिक बिल्कुल न रखें यह भी ध्यान रखें कि अँगुलियों के सबसे ऊपरी भागों के खून का रंग नीला न होने पाये। ऐसा होने से पहले ही रबड़ बैंड उतार दें। रबड़ बैंड इस प्रकार चड़ायें कि बाद में आसानी से खुल जायें। अच्छा रहेगा कि रबड़ बैंड का आखिरी हिस्सा साथ की अँगुली पर चढ़ायें ताकि उतारते समय आसानी से उतर जाये। रबड़ बैंड उतारने के बाद अँगुलियों के पहले जोड़ वाले हिस्से को थोड़ा सा मसलें ताकि रक्त का प्रवाह ठीक हो जाये।
रबड़ बैंड की भाँति अँगूठों तथा अँगुलियों के पहले जोड़ों पर कपड़े सुखाते समय प्रयोग की जाने वाली क्लिप-चुटकियां भी लगा सकते हैं ।
हाथों के अंगूठों तथा अँगुलियों पर क्लिप लगाने का ढंग | इसी प्रकार पैरों पर भी क्लिप लगा सकते हैं। रबड़ बैंड की भाँति क्लिप भी पाँच मिनट से अधिक समय तक नहीं लगाने चाहिए। उपरोक्त बताए गए ढंग यद्यपि प्रभावकारी हैं पर गौण कहे जा सकते हैं । प्रेशर देने का उत्तम ढंग तो हाथों के अँगूठों या फिर लकड़ी, ठोस रबड़ या प्लास्टिक के उपकरणों के साथ ही है।
प्रायः ऐसा देखा गया है कि एक-दो प्रतिशत लोगों को प्रथम बार प्रेशर देने से हाथों तथा पैरों में मामूली सी सूजन आ जाती है या हाथों तथा पैरों में प्रतिबिम्ब केन्द्रों में दर्द होने लगता है । ऐसा प्रायः इसलिए होता है कि जब विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव डाला जाता है तो वहाँ स्थित क्रिस्टल हरकत में आते हैं तथा प्रेशर देने के कारण उन्हें अपना स्थान छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
ये क्रिस्टल सूक्ष्म काँच के टुकड़ों के सदृश होते हैं। जब क्रिस्टल अपना स्थान छोड़ने लगते हैं तो निश्चय ही रक्तवाहिकाओं तथा विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर हलचल शुरू हो जाती है जिस कारण थोड़ी सूजन का आ जाना स्वाभाविक है। सूजन की अवस्था में एक-दो दिन प्रेशर नहीं देना चाहिए। एक-दो दिन में ही सूजन दूर हो जाती है। पैरों तथा हाथों में सूजन या दर्द से घबराना नहीं चाहिए क्योंकि यह एक स्वाभाविक क्रिया है। अगर प्रेशर सावधानी से दिया जाए तो प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर न तो असामान्य दर्द होता है और न ही सूजन आती है।
प्रेशर कितना दिया जाए
प्रेशर देने की विधि जानने के साथ यह जानना भी जरूरी है कि विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर कितना दबाव डाला जाए। प्रेशर से अभिप्राय अधिक दर्द करना नहीं अपितु यह है कि दबाव उतना डाला जाए जितना रोगी आसानी से सह सके तथा उसका प्रभाव चमड़ी के नीचे की सतह तक पहुँच जाए। पर इसके साथ यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रेशर बिल्कुल मामूली नहीं होना चाहिए अन्यथा उससे पूरा लाभ नहीं होता। शुरू-शुरू में दबाव बिल्कुल हलका देना चाहिए। और कुछ दिनों के बाद थोड़ा-थोड़ा बढ़ाना चाहिए।
हाथों तथा पैरों में कुछ भाग ऐसे हैं जो काफी कोमल हैं और कुछ अपेक्षाकृत सख्त घुटनों तथा टखनों के साथ वाला, अँगुलियों के नीचे वाला तथा हाथों व पैरों का ऊपरी भाग दूसरे भागों से कुछ नरम होता है। इन भागों पर दबाव कम तथा धीरे से देना चाहिए। शेष भागों पर दबाव मध्यम तथा एड़ी के नीचे वाले भाग पर जोर से दिया जा सकता है।
प्रेशर देने का समय तथा अवधि
प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर किसी समय भी दिया जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि जिन रोगों में आमाशय, जिगर, पित्ताशय तथा अंतड़ियों का सम्बन्ध है, उस स्थिति में प्रेशर खाना खाने से पहले किसी समय या खाना खाने से दो-तीन घंटे बाद देना चाहिए। हलका जलपान करने के बाद भी प्रेशर दिया जा सकता है।
प्रत्येक प्रतिबिम्ब केन्द्र पर कितने समय तक तथा दिन में कितनी बार प्रेशर दिया जाये, इस बारे में चिकित्सकों के अपने अनुभव के आधार पर अलग-अलग विचार हैं। कई चिकित्सक प्रत्येक केन्द्र पर एक समय में 9 मिनट तक प्रेशर देने का परामर्श देते हैं। कई अन्य 2 से 5 मिनट तथा कई केवल कुछ सेकंड तक ही प्रेशर देने का सझाव देते हैं। इसी प्रकार कई चिक्तित्मक्त
प्रतिदिन, कई सप्ताह में एक या दो-तीन बार तथा कई अन्य जितनी बार चाहो, प्रेशर देने की सलाह देते हैं।
प्रसिद्ध एक्युप्रेशर चिकित्सक एफ० एम० होस्टन ने अपनी पुस्तक The Healing Benefits of Acupressure में लिखा है कि चिरकालिक रोगों में पहले सप्ताह प्रतिदिन, उसके बाद सप्ताह में दो या तीन बार तथा पश्चात् सप्ताह में एक बार अवश्य प्रेशर देते रहना चाहिए।
एक अन्य एक्युप्रेशर चिकित्सक फैंक बॅहर ने अपनी पुस्तक The Acupressure Health Book में लिखा है कि रोग तथा रोगी की स्थिति अनुसार आप ने स्वयं यह निश्चित करना है कि प्रेशर दिन में तथा सप्ताह में कितनी बार देना है। डा० बॅहर की यह राय है कि शुरू में प्रतिदिन एक बार प्रेशर देना चाहिए। समय के प्रति उन्होंने चीनी चिकित्सकों का हवाला देते हुए सलाह दी है कि छोटे बच्चों को 3 से 7 मिनट, बड़े बच्चों को 5 से 10 मिनट तथा व्यस्क व्यक्तियों को 5 से 15 मिनट तक रोग से सम्बन्धित विभिन्न केन्द्रों पर एक समय (in one sitting) प्रेशर देना चाहिए।
हमारा यह अनुभव है कि लगातार 9 मिनट तक किसी एक केन्द्र पर दबाव सहन करना प्रत्येक रोगी की सहनशक्ति से बाहर है। काफी लम्बे समय तक लगातार दबाव देने से पैरों तथा हाथों के कुछ भागों पर सूजन भी आ सकती है। अपने अनुभव के आधार पर मेरी यह निजी राय है कि प्रत्येक प्रतिबिम्ब केन्द्र की अवस्था तथा रोगी की सहनशक्ति के अनुसार 15 सेकंड से लेकर दो मिनट तक एक केन्द्र पर एक समय प्रेशर देना चाहिए। उसके लिए रोगी की शारीरिक अवस्था और सहनशक्ति को ध्यान में रखना पड़ता है। प्रेशर के सम्बन्ध में एक अन्य अपितु उपयोगी राय यह है कि एक प्रतिबिम्ब केन्द्र पर लगातार प्रेशर नहीं देते रहना चाहिए आधा एक मिनट प्रेशर देने के बाद कुछ सेकंड के लिए आराम देकर पुनः प्रेशर देना चाहिए। ऐसा करने से रोगी को प्रेशर से हो रहे दर्द से कुछ चैन भी मिल जाता है तथा हाथों व पैरों
में सूजन आदि का डर भी नहीं रहता। हमारा अनुभव है कि पैरों, हाथों तथा पीठ पर एक या अनेक रोगों से सम्बन्धित विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने में बच्चों को 5 से 15 मिनट तथा बालिग व्यक्तियों को 15 से 45 मिनट तक का एक बार में समय लग जाता है।
इस पद्धति द्वारा अनेक रोगियों का उपचार करने के बाद मेरी यह निजी राय है कि जिस प्रकार अधिक खाना या बहुत कम खाना या अनियमित रूप से खाना शरीर के लिये लाभदायक नहीं अपितु हानिकारक सिद्ध होता है उसी प्रकार अधिक बार प्रेशर देना, बहुत कम बार प्रेशर देना या अनियमित रूप से प्रेशर देना भी पूरी तरह लाभप्रद नहीं हो सकता। मेरा विचार है किं प्रतिदिन एक बार या फिर दो बार, सवेरे और सायंकाल सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए।
हृदय (heart), गुर्दों (kindneys ) तथा फेफड़ों (lungs) से सम्बन्धित चिरकालिक जटिल रोगों की अवस्था में रोगियों को शुरू-शुरू में सप्ताह में दो या तीन बार और वह भी दिन में केवल एक समय ही सम्बन्धित केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए। यह भी ध्यान रखना चाहिये कि प्रेशर हलका होना चाहिए। ज्यों-ज्यों रोगी की स्थिति ठीक होती जाए उसी प्रकार प्रेशर के दिन तथा प्रेशर बढ़ाना चाहिए।
प्रेशर सम्बन्धी कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धांत
1. जहाँ तक हो सके प्रेशर ऐसे स्थान पर बैठकर देना चाहिए जो साफ तथा हवादार हो। प्रेशर देने से पहले रोगी को अपने शरीर को ढीला छोड़ देना चाहिए और दिल-दिमाग पर किसी प्रकार की चिंता या तनाव नहीं लाना चाहिए।
2. रोगी के हाथों तथा पैरों पर विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने से पहले शरीर पर लगाने वाला थोड़ा सा पाउडर (talcum powder) या कोई तरल पदार्थ लगा लें यथा सरसों का तेल, गरी का तेल चेहरे पर लगाने वाली कोई क्रीम इत्यादि। ऐसा करने से दबाव भी ठीक प्रकार दिया जा सकता है तथा चमड़ी पर कोई छाला इत्यादि भी नहीं पड़ता। तरल पदार्थ से पाउडर अधिक अच्छा रहता है क्योंकि उससे प्रेशर गहरा दिया जा सकता है।
3. एक्युप्रेशर द्वारा अनेक रोगों का इलाज किया जा सकता है पर हृदय (heart), फेफड़ों (lungs), जिगर (liver) तथा गुर्दों (kindeys ) सम्बन्धी अधिक गंभीर रोगों में डाक्टर की सलाह ले लेना आवश्यक है। हृदय, गुर्दों तथा अन्य अंगों से सम्बन्धित कई चिरकालिक रोगों में जहाँ डाक्टर अपनी मजबूरी बता देते हैं, उन रोगों में एक्युप्रेशर से काफी अच्छे परिणाम मिले हैं।
4. गर्भावस्था (pregnancy) में केवल उन्हीं प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए जिनका जनन अंगों से सम्बन्ध न हो हड्डी के टूटे भाग (fractured area) पर भी सीधे तौर पर (directly) प्रेशर नहीं देना चाहिए। छूत के रोगों (contagious diseases) में भी एक्युप्रेशर से कोई लाभ नहीं होता। अतः ऐसे रोगियों को किसी डाक्टर से ही अपना इलाज करवाना चाहिए।
5. शरीर एक अखण्ड एकाई है। कई बार हमें रोग का कारण पता होता है और कई बार नहीं। अतः रोग सम्बन्धी विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने के अतिरिक्त हाथों तथा पैरों में समस्त केन्द्रों पर भी थोड़ा बहुत प्रेशर दे देना चाहिए।
6. रोग निवारण के लिए एक्युप्रेशर एक प्रभावशाली चिकित्सा पद्धति है पर एक्युप्रेशर द्वारा रोग को तभी शीघ्र दूर किया जा सकता है जब आहार की ओर विशेष ध्यान दिया जाये । अतः यह जरूरी है कि प्रतिदिन के आहार में शरीर के लिए आवश्यक पौष्टिक तत्त्व यथा प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा तथा विभिन्न विटामिन पर्याप्त मात्रा में लिए जाएँ और कोई ऐसा पदार्थ न खाया जाए जिससे शरीर में विकार पैदा हो।
7. कई ऐसे रोग हैं यथा रीढ़ की हड्डी या शियाटिक वातनाड़ी का दर्द- शियाटिका इत्यादि जिनमें डाक्टर कुछ दिनों के लिए पूर्ण आराम करने का परामर्श देते हैं। अच्छा यही है कि ऐसे रोगों में एक्युप्रेशर के साथ कुछ दिनों के लिए आराम भी किया जाए।
8. एक्युप्रेशर केवल रोगों को दूर करने की ही पद्धति नहीं है अपितु रोगों को दूर रखने की भी पद्धति है। अतः स्वस्थ व्यक्तियों को भी प्रतिदिन हाथों तथा पैरों में सारे प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए। इस तरह अच्छे स्वास्थ्य को वर्षों तक कायम रखा जा सकता है।
9. एक्युप्रेशर केवल अनेक रोगों में ही उपयोगी नहीं अपितु चिंता व मानसिक तनाव की स्थिति में भी यह बहुत गुणकारी है।
10. एक्युप्रेशर के लिए यह आवश्यक नहीं कि रोगी को स्वास्थ्य विज्ञान की पूरी जानकारी हो। रोगी केवल प्रतिबिम्ब केन्द्रों की परीक्षा करके अपना इलाज आप कर सकता है।
11. प्रत्येक रोग की अवस्था में मस्तिष्क तथा स्नायु संस्थान (nervous system) सम्बन्धी प्रतिविम्ब केन्द्रों पर अवश्य प्रेशर देना चाहिए । यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी तथा स्नायुसंस्थान शरीर का मुख्य आधार हैं। बहुत से रोग नाड़ीतंत्र में किसी खराबी के कारण ही होते हैं।
12. लगभग सारे प्राकृतिक एवं एक्युप्रेशर चिकित्सकों ने नाभिचक्र (solar plexus ) तथा डायाफ्राम (diaphragm ) की अपनी प्राकृतिक अवस्था तथा स्वस्थता पर बल दिया है क्योंकि शरीर से मानसिक एवं शारीरिक तनाव को दूर करके शरीर के विभिन्न अंगों का संतुलन बनाए रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है अतः सारे चिकित्सकों का यह मत है कि शरीर में कोई भी रोग हो, रोग से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों के साथ दोनों हाथों तथा दोनों पैरों में नाभिचक्र (solar plexus ) तथा डायाफ्रम ( diaphragm) से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी अवश्य प्रेशर दें।
13. शरीर में परिसंचरण तन्त्र (circulatory system) में हृदय, रक्तवाहिकाएँ तथा लसीका वाहिनियाँ होती हैं। रक्त धमनियों तथा शिराओं की भाँति शरीर में लसीका वाहिनियों का भी जाल सा बिछा होता है जिसे लसीकातंत्र (lymphatic system) कहते हैं। लसीका तन्त्र द्वारा पैदा लसीका (tissue fluid) का शरीर के तन्तुओं तथा अंगों का पोषण करने, उन्हें साफ रखने तथा उनकी रक्षा करने में बहुत बड़ा योगदान है लसीका बैक्टेरिया का विनाश करते हैं। संक्रमण की अवस्था में लसीका तंत्र शरीर के एक अंग का संक्रमण अन्य भागों में फैलने से रोकता है। अतः अनेक रोगों में लसीकातंत्र को अधिक शक्तिशाली बनाने की आवश्यकता होती है। अच्छा तो यह है कि स्नायुसंस्थान की भाँति लसीकातंत्र से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी अवश्य प्रेशर दिया जाए। ये केन्द्र हाथों के ऊपरी भाग तथा पैरों के ऊपरी भाग पर स्थित होते है।
एक्युप्रेशर का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि इससे कोई प्रतिकूल असर (side effect) नहीं होता। इससे लाभ ही लाभ है, नुकसान का तनिक भी डर नहीं। इसे बच्चे, जवान व वृद्ध सभी निश्चित होकर कर सकते हैं।
समस्त चिकित्सा पद्धतियों से एक्युप्रेशर का मेल
एक्युप्रेशर पद्धति की एक अन्य विशेषता यह है कि अगर रोगी किसी भी पद्धति के किसी सुयोग्य डाक्टर से अपना इलाज करवा रहा है और कोई दवा आदि सेवन कर रहा है तथा रोगी दवा लेना बन्द नहीं करना चाहता या एकदम दवा बन्द करना रोगी के हित में नहीं तो उस स्थिति में रोगी बिना दवा छोड़े हर प्रकार के इलाज के साथ एक्युप्रेशर द्वारा उपचार कर सकता है।
इतना अवश्य ध्यान रखें कि कुछ दवाइयाँ इतनी सख्त होती है कि वे एक रोग को दूर करने में सहायता करती हैं पर अनेक अन्य रोगों का कारण बन जाती हैं। अतः रोगी के हित में है कि जितना जल्दी हो सके, दवाइयों को छोड़ने की कोशिश करे। एक्युप्रेशर का किसी भी चिकित्सा पद्धति से अमेल या टकराव नहीं है। एक्युप्रेशर एक विशुद्ध प्राकृतिक नियम है जिस पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है।