पाचन तंत्र के रोगों का एक्युप्रेशर से उपचार
जिगर का कार्य तथा रोग
लिवर, यकृत या जिगर हमारे शरीर में सबसे बड़ी ग्रन्थि (largest gland) है । यह पेट में दायीं तरफ ऊपर के भाग में (आकृति नं0 1) डायफ्राम (diaphragm ) के नीचे होती है और इसका काफी हिस्सा पसलियों से ढका रहता है। साधारणतः एक वयस्क व्यक्ति के जिगर का वजन उसके शरीर के वजन का दो प्रतिशत (equivalent to 2% of the total body weight) अर्थात् पुरुषों का 1400 से 1800 ग्राम तक तथा स्त्रियों का 1200 से 1400 ग्राम तक होता है।
जन्म के समय बच्चों में यकृत का वजन उनके शरीर के वजन का लगभग पाँच प्रतिशत होता है। यकृत देखने में नरम और लाल भूरे रंग (soft dark brown) की ग्रन्थि है। जिगर की एक प्रमुख विशेषता यह है कि हमारे शरीर में जितना खून प्रवाह करता है उसका लगभग चौथाई हिस्सा हमेशा जिगर में संचित रहता है।

जिगर के प्रमुख कार्य
पाचन क्रिया में जिगर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। हमारे शरीर की रचना इस प्रकार है। कि मुँह, ग्रासनली (alimentary tract ), आमाशय (stomach) और छोटी आँत (small intestines) द्वारा भोजन पचाने का कार्य जिगर के योगदान के बिना सम्पूर्ण नहीं होता। जो भोजन हम खाते हैं उसको अन्य अंगों के लिए शक्तिवर्धक रूप जिगर की प्रक्रिया से ही मिलता है । जिगर के आकार और प्रमुख कार्यों को दृष्टिगत रखते हुए इसे शरीर की सबसे बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण रसायन फैक्टरी माना गया है। जिंगर के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं:-
1. जिगर कार्बोहाइड्रेटस (carbohydrates), प्रोटीन (proteins), वसा (fats), लोहा (iron) तथा विटामिन (vitamins) ए, बी, डी, ई, और के को शरीर के लिए उपयोगी बनाने का कार्य करता है। आवश्यकतानुसार जिगर इन तत्त्वों को शरीर के विभिन्न अंगों को पहुँचाता रहता है। अपने में संचित की हुई वसा (fat) को जिगर ऐसा रूप देता है जिससे वह शरीर तंतुओं (tissues) को शक्ति तथा उष्णता प्रदान कर सके। यहाँ तक कि जिगर गाजर तथा सब्जियों के हरे पत्तों में पाये जाने वाले तत्त्व कैरोटिन (carotene) से विटामिन ‘ए’ का निर्माण भी करता है।
2. पाचन क्रिया के समय खाद्य पदार्थों से परिवर्तित श्वेतसार तथा शर्करा को जब रक्त ग्लूकोज (glucose) तथा मॉलटोज (maltose) के रूप में जिगर में ले आता है तो जिगर के कोष इन्हें एंजाइम (enzyme) क्रिया द्वारा ग्लाइकोजन (glycogen) नामक शर्करा में बदल कर अपनी देह में संचित कर लेता है। शरीर को जितने ताप की आवश्यकता होती है, जिगर उसे देता रहता है।
इसके अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर जिगर में इकट्ठी हुई ग्लाइकोजन को जिगर एंजाइम क्रिया द्वारा पुनः ग्लूकोज में परिवर्तित करके रक्त प्रवाह में पहुँचाता रहता है । इस तरह जिगर रक्त में ग्लूकोज का स्तर सामान्य (normal blood glucose level) बनाए रखने में सहायता करता है।
3. ग्लाइकोजन बनाने के अतिरिक्त जिगर का अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य एक तरल घने क्षार पदार्थ पित्त को बनाना है जिसे पित्त का निर्माण (formation of bile) कहते हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि 24 घंटों में जिगर से लगभग 500 से 1000 मिलीलिटर पित्त निकलता है। पित्त का कुछ भाग पित्त कोष (gall bladder) में चला जाता है और शेष भाग भोजन को, विशेषतः चर्बी को पचाने योग्य बनाने और शरीर के लिए ग्रहण करने योग्य बनाने के लिए छोटी आँत में पहुँचता है।
पित्त वास्तव में जिगर द्वारा त्याग हुआ पदार्थ होता है और मलमार्ग से बाहर निकलने के लिए आँत में आता है पर अपनी कुछ विलक्षण विशेषताओं के कारण पाचन क्रिया में सहायक होता है। अपनी इस क्रिया द्वारा जिगर कब्ज नहीं होने देता। पित्त लाभकारी है पर नुकसानदायक भी सिद्ध हो सकता है। अगर पित्त का निकास न हो और यह रक्त प्रवाह में मिल जाए तो पीलिया (jaundice) हो सकता है। वैसे पीलिया होने के कई अन्य कारण भी होते हैं।
4. पित्त का एक लाभ यह है कि यह आँत में दुर्गन्ध पैदा होने से रोकता है।
5. पाचन क्रिया में योगदान के अतिरिक्त जिगर रक्त प्रवाह में प्रकट होने वाले हानिकारक तत्वों को भी नष्ट (detoxification of many drugs and toxins) करता है। इसके अतिरिक्त यह लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण और विनाश में भी सहायता करता है। जिगर रक्त को घने करने वाले तत्व यथा prothrombin तथा fibrinogen पैदा करता है। अगर यह तत्व रक्त में न हों तो मामूली चोट लगने से भी शरीर का सारा रक्त बह जाए और मृत्यु हो जाए।
जिगर के विभिन्न रोग
जिगर के अस्वस्थ होने तथा अपना कार्य ठीक प्रकार न करने से अनेक रोग हो जाते हैं। संक्षेप में इनका विवरण इस प्रकार है:-
1. पीलिया – कामला- जाण्डिस (Jaundice) : जैसे पहले बताया गया है कि जिगर से पैदा होने वाला तरल पदार्थ पित्त अत्यन्त लाभकारी भी है पर अत्यन्त नुकसानदायक भी सिद्ध हो सकता है। पित्त के अंश जब जिगर से आँत में पहुँचने की बजाए रक्तवाहिनियों में पहुँच जाते हैं तो जण्डिस हो जाता है जिसे पीलिया या कामला कहते हैं। निःसन्देह ऐसा जिगर की अस्वस्थता के कारण होता है। वैसे पीलिया होने के कई अन्य कारण भी होते हैं।
2. जिगर द्वारा ठीक प्रकार कार्य न करने से आलस्य, भूख में कमी, जीभ पर मेल का लेप सा चढ़े रहना, कब्ज, सिर दर्द, शरीर में दुर्बलता, बदन में खुजली, आँखों में खिंचाव तथा रक्त बनने में रुकावट पड़ती है। Acute Infectious Hepatitis की स्थिति में तेज बुखार भी हो जाता है, तेज सिर दर्द तथा मांसपेशियों में दर्द रहने लगता है। भूख नहीं लगती, पेट में दायीं तरफ पसलियों के नीचे दर्द अनुभव होता है तथा पीले रंग का पेशाब आता है। कुछ दिन बाद पीलिया तक भी हो जाता है।
3. जिगर की शरीर के अन्य अंगों से विचित्र भिन्नता है। अस्वस्थता की स्थिति में यह सामान्य आकार से बढ़ जाता है और कम भी हो जाता है। मलेरिया तथा टाइफॉइड रोग में जिगर के आकार में काफी वृद्धि हो जाती है। जिगर में दर्द होने लगता है और प्रायः ज्वर भी हो जाता है। रोगी पूरी तरह साँस भी नहीं ले सकता। रक्तवमन भी शुरू हो जाता है।
मोटे व्यक्तियों खास कर ऐसे व्यक्तियों जिनके शरीर में प्रोटीन की कमी हो, जिन का मधुमेह रोग कंट्रोल से बाहर (uncontrolled diabetes) तथा शराब का अधिक सेवन करते हों। या जिनके शरीर में प्रोटीन की कमी हो (suffering from protein malnutrition), उनका जिगर साधारण रूप से बड़ा (fatty liver) हो जाता है।
4. ऐसा भी देखा गया है कि जिगर के पुराने रोगियों के स्वभाव में प्रायः चिड़चिड़ाहट, सुस्ती तथा हाथों में कम्पन भी शुरू हो जाती है। इसके साथ हाथ फैलाने तथा सिकोड़ने में भी कठिनाई आती है।
5. सिरोहसिस ऑफ दी लिवर (cirrhosis of the liver) जो कि मुख्यतः अधिक शराब पीने से होता है, जिगर की एक भयानक बीमारी है जिसमें जिगर संकुचित (congested) तथा विकृत (distorted) सा हो जाता है। ऐसी स्थिति में रक्त नाड़ियाँ फट सकती हैं और रक्त बहने से मृत्यु तक हो जाती है। इस रोग में पुरुषों के स्तन बढ़ने लग जाते हैं तथा नपुंसकता के लक्षण शुरू हो जाते हैं। खून की उल्टियाँ तथा नाक से खून बहना भी शुरू हो जाता है।
6. कुछ ऐसी दवाइयाँ या पदार्थ अधिक मात्रा में खा लेने से जो जहरीले हों या जिन्हें शरीर ग्रहण नहीं कर सकता ऐसी अवस्था में जिगर में सूजन आ जाती है जिसे toxic hepatitis (inflammation of the liver) कहते हैं। ऐसी अवस्था में जी मचलाना तथा उल्टियाँ (nausea and vomiting) तथा दस्त (diarrhea) लग जाते हैं तथा इसके बाद प्राय: पीलिया हो जाता है और जिगर काम करना बन्द कर देता है।
7. जिगर की कमजोरी के कारण मानसिक असंतुलन, स्मरण शक्ति कम होना, दाढ़ी-मूछों के बाल गिरने, जिगर का कैंसर तथा पेट फूलना आदि अनेक रोग हो जाते हैं।
8. जिगर के विकारों के कारण पैरों में सूजन, रक्त की कमी, थोड़ा परिश्रम करने पर साँस फूलना, हिचकी, मुँह में पानी भर आना, खट्टी डकार आना, खट्टी के आना तथा छाती जलना आदि रोग भी हो जाते हैं।
9. गर्भावस्था में दवाइयों के अधिक सेवन से भी जिगर को नुकसान पहुँचता है। ऐसी अवस्था में पीलिया होने का डर रहता है। प्रायः कै होने लगती है या कै करने को जी करता है।
एक्युप्रेशर द्वारा जिगर के रोगों का उपचार
हमारे शरीर में जिगर केवल एक ही है और वह पेट में दायीं ओर होता है। अतः जिगर से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्र केवल दायें पैर तथा केवल दायें हाथ में होते हैं जैसाकि आकृति नं० 2 में दर्शाया गया है।

जिगर के रोगों को दूर करने के लिए जिगर के अतिरिक्त थाइरॉयड व पैराथाइरॉयड ग्रंथियों, गुर्दों, पित्ताशय , लसीकातंत्र, स्नायु संस्थान तथा स्पलीन के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी प्रेशर देना चाहिए क्योंकि ये ग्रंथियाँ तथा अवयव भी किसी न किसी प्रकार जिगर के रोगों से सम्बन्धित होते हैं।

जिगर मेरीडियन दायें पैर के अँगूठे से शुरू होकर टाँग के बीच से होती हुई जिगर तक पहुँचती है जैसाकि आकृति नं० 3 में दिखाया गया है। जिगर के कार्य को अधिक प्रभावी बनाने तथा जिगर के रोगों को शीघ्र दूर करने के लिए इस मेरीडियन से सम्बन्धित पैर पर दो केन्द्र हैं।
पहला केन्द्र वहाँ होता है जहाँ अँगूठा तथा पहली अँगुली परस्पर मिलते हैं तथा दूसरा केन्द्र पहले चैनल में ही पैर के अँगूठे से हाथ के दो अँगूठे के अन्तर पर होता है।
इनके अतिरिक्त दाहिनी टाँग पर ही बाहरी रखने से दो हाथों के अंतर पर (आकृति नं० 3) जिगर सम्बन्धी केन्द्र होता है। प्रत्येक केन्द्र पर कुछ सेकंड के लिए तीन बार प्रेशर दें।

जिगर के रोगों की स्थिति में सख्त चारपाई या भूमि पर लेट कर पेट के दायीं तरफ पसलियों के नीचे (आकृति नं० 4) दोनों हाथों की अँगुलियों से प्रेशर दें। प्रेशर स्वयं भी दे सकते हैं या फिर किसी से दिलवा सकते हैं। ध्यान रखें कि पसलियों के ऊपर प्रेशर न आये। सारे केन्द्रों पर एक बार प्रेशर देने के बाद, दूसरी बार तथा फिर तीसरी बार प्रेशर दें.
इन रोगों में पीठ पर ऊपर से नीचे, विशेषकर मध्य भाग में, रीढ़ की हड्डी से थोड़ा हट कर तीन बार प्रेशर दें मध्य का भाग जिगर से सम्बन्धित होता है।
केवल रोग की अवस्था में ही नहीं अपितु जिगर को हमेशा स्वस्थ रखने के लिए उपरोक्त बताए गए प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर नियमित रूप से प्रेशर देना चाहिए।
जिगर के रोगों में मैदा व खोया की वस्तुएँ, चीनी, आलू कचालू तथा तली हुई चीजें बिल्कुल न खाएँ । जहाँ तक हो सके नींबू, प्याज, अदरक, ककड़ी, मूली, मौसमी तथा संतरा लें। खुली हवा में सैर तथा हलका व्यायाम करें।
जिगर तथा पाचन के दूसरे अवयवों से सम्बन्धित विभिन्न रोगों से बचने के लिए यह आवश्यक है कि भोजन प्रति उन त्रुटियों को दूर किया जाये जो कि हम से अधिकाँश व्यक्ति प्रतिदिन करते हैं – हम बिना भूख के खाते हैं, खाये पर फिर खाते हैं, बेवक्त खाते हैं, बीमारी की हालत में भी बिना डाक्टर की सलाह के खाते हैं, बेमेल खाते है, असंतुलित खाते हैं, जरूरत से ज्यादा खाते हैं तथा बिना अच्छी प्रकार चबाये खाते हैं जिस से भोजन का पाचन ठीक प्रकार नहीं होना।
पित्ताशय के कार्य तथा रोग (Gall Bladder – Its Functions and disorders)
पित्ताशय मांसपेशी का एक तंग मुँह वाला पित्त का थैला ( reservoir of bile) होता है जिसकी तुलना नाशपाती के आकार (pear-shaped) से की जा सकती है। यह जिगर (liver) के दाहिने भाग के समीप (right lobe of liver ) स्थिर होता है जैसाकि आकृति नं0 1 में दर्शाया गया है। यह आकार में 8 से 10 सैंटीमीटर तक लम्बा तथा लगभग 3 सैंटीमीटर चौड़ा होता है। प्रायः ऐसा भी देखा गया है कि कई व्यक्तियों के दो पित्ताशय होते हैं (double with one bile duct and separate bile ducts) और कइयों का पित्ताशय सूक्ष्म रूप में दो भागों में विभक्त होता है।
पित्ताशय के प्रमुख कार्य
जिगर से जो पित्त निकलता है उसका कुछ भाग पित्ताशय में आकर जमा हो जाता है इसलिए इसे पित्त का भण्डार कहा जाता है। जब पित्त पित्ताशय में आता है तो पित्ताशय इसे अपने प्रारम्भिक तरल रूप से लगभग 10 गुणा गाढ़ा कर लेता है। जब भोजन विशेषतः अधिक वसा युक्त भोजन आमाशय से छोटी आँत में पाचन के लिए आता है तो स्वाभाविक दबाव के कारण पित्ताशय सिकुड़ जाता है। इस क्रिया के कारण पित्ताशय से पित्त निकलकर सामान्य पित्तवाहिनी (bile duct) द्वारा डुओडेनम (duodenum) अर्थात छोटी आँत के मुँह में आ जाता है। छोटी आँत में पहुँच कर पित्त भोजन को विशेषकर चर्बी को गलाकर पाचन के योग्य बनाता है । पित्ताशय की यह विशेषता है कि उसके आकार में फैलाव आने तथा सिकुड़न आने के कारण पित्त का प्रवाह ठीक रहता है।
पित्ताशय के रोग
पित्ताशय के प्रमुख रोगों में ‘गालस्टोनस’ (gallstones) अर्थात पित्ताशय के पत्थर हैं। पित्ताशय में छोटे-छोटे पत्थर कैसे बन जाते हैं इस बारे में कोई एक विचार नहीं हैं। ऐसा अनुमान है कि यह कैलसियम (calcium) और कोलेस्ट्रोल (cholesterol) से बनते हैं । जिगर से जो पित्त पित्ताशय में आती है उसमें से पित्ताशय कोलेस्ट्रोल (cholesterol) तथा खनिज लवणों को ग्रहण कर लेता है पर रोग की अवस्था में पित्ताशय केवल (bile salts) को ग्रहण कर पाता है जिससे वहाँ एकत्रित कोलेस्ट्रोल के तत्त्व ‘स्टोनस’ बन जाते हैं।
पित्ताशय तथा पित्तवाहिनी (bile duct) की सूजन या गालस्टोनस का रोग पुरुषों की अपेक्षा औरतों में अधिक होता है और औरतों में भी खासकर 40 से ऊपर आयु की मोटी तथा गोरी औरतों (fair, fat, forty and fertile) में अधिक देखा गया है। गर्भधारण करने के समय या इसके तुरन्त बाद गालस्टोनस का रोग प्रायः औरतों को हो जाता है। यह रोग पैतृक भी होता है और उन लोगों को अधिक होता है जो चर्बी वाली वस्तुओं का अधिक सेवन करते हैं और जो मोटे अधिक होते हैं क्योंकि उनकी पित्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा अधिक होती है ।
गालस्टोनस रोग की अवस्था में प्रायः रात्रि को या फिर सवेरे ज्यादा भोजन खाने के बाद तथा अधिक वसा वाले पदार्थों (fatty meals) खाने के बाद काफी दर्द उठता है। दर्द कभी अधिक हो जाता है और कभी थोड़ा। इस रोग में दाहिने कन्धे में दर्द होने लग जाता है। और इस बाजू से कोई भी वस्तु जमीन से उठाना कठिन प्रतीत होती है। नब्ज की गति तेज (fast pulse) हो जाती है। अधिकतर रोगियों का मन कै करने को होता है। कई उल्टियाँ करने भी लग जाते हैं।
थोड़ा-थोड़ा समय पाकर बार-बार पेट में काफी पीड़ा होती है और पीलिया भी हो जाता है। भूख कम हो जाती है तथा मुँह से गैस निकलनी शुरू हो जाती है। यहाँ तक कि 103 डिग्री बुखार भी होने लगता है। एक्स-रे में गालस्टोनस की स्थिति का पता चल जाता है। गालस्टोनस का दर्द कुछ मिनटों से लेकर कई घण्टों तक रहता है क्योंकि जब तक स्टोन पित्ताशय के मुँह से पीछे न चला जाए या फिर पित्तवाहिनी से नीचे न चला जाय, दर्द की स्थिति प्रायः बनी रहती है।
इसके अतिरिक्त गालस्टोनस होने की स्थिति में पित्तवाहिनी में सूजन (cholangitis), पित्तवाहिनी अग्न्याशय (pancreas) ग्रंथि में भी सूजन (pancreatitis) तथा पित्ताशय में छोटे- छोटे छाले (carcinoma) हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में रोग ज्यादा भयानक हो जाता है। पित्ताशय की अधिक सूजन के कारण पीव भी पड़ सकती है।
गालस्टोनस कई प्रकार के होते हैं एक तो कोलेस्ट्रोल (pure cholesterol stones) अर्थात् चिकने व सफेद रंग के, आकृति में गोल और आकार में बड़े और दूसरे कैलसियम युक्त विभिन्न रंगों के ( pigment stones), आकार में छोटे तथा आकृति में उबड़-खाबड़ । इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे स्टोनस होते हैं जो कोलेस्ट्रोल, पित्त तथा कैलसियम सालट इत्यादि से परस्पर मिलकर बने होते हैं जिन्हें gallstones कहते हैं। गालस्टोनस के बारे में यह कहा जाता है कि एक बार बन जाने के बाद फिर यह बढ़ते नहीं हैं।
ऐसा भी देखा गया है कि कई व्यक्तियों के पित्ताशय में लगातार कई वर्षों से गालस्टोनस होते हैं पर वे न ही पित्ताशय से पित्त के सामान्य निकास में कोई रुकावट डालते हैं और न ही किसी प्रकार कष्टकर होते हैं।
गालस्टोनस से छुटकारा पाने के लिए डाक्टर प्रायः ऑपरेशन द्वारा पित्ताशय (gall bladder) निकालने की सलाह देते हैं। ऑपरेशन से निश्चय ही गालस्टोनस के कारण होने वाला दर्द चला जाता है, पर मेरे पास कई ऐसे रोगी आये हैं जिनको ऑपरेशन के बाद कई अन्य रोग शुरू हो गये हैं। अच्छा तो यह है कि सबसे पहले एक्युप्रेशर तथा अन्य प्राकृतिक विधियों द्वारा इलाज करना चाहिए जिससे गालस्टोनस बनने भी बन्द हो जायें और जो गालस्टोनस पित्ताशय में जमा हुये हैं, वे शरीर से बाहर निकल जायें।
एक्युप्रेशर द्वारा रोग निवारण
जिगर तथा पित्ताशय से सम्बन्धित पैरों तथा हाथों में प्रायः सामान्य प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं जैसाकि आकृति नं० 1 तथा 2 में दर्शाया गया है। ये केन्द्र केवल दायें पैर तथा दायें हाथ में ही होते हैं क्योंकि पित्ताशय पेट में दायीं ओर होता है। प्रेशर पैर तथा हाथ दोनों केन्द्रों पर देना चाहिए।

पित्ताशय के रोगों में स्नायुसंस्थान तथा अंतड़ियों (small intestines) के प्रतिबिम्ब केन्द्रों (आकृति नं० 5) पर प्रेशर देने के अतिरिक्त पीठ पर रीढ़ की हड्डी से थोड़ा हट कर दोनों तरफ ऊपर से नीचे तीन बार प्रेशर देना चाहिए।
गालस्टोनस के रोगियों को प्रेशर बड़ी सावधानी से और शुरू में थोड़े दबाव के साथ देना चाहिए। ज्यों-ज्यों रोगी दबाव सहने की अवस्था में हो जाए, त्यों-त्यों दबाव थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते जाना चाहिए। ऐसे रोगियों का इलाज करते समय बहुत शीघ्र आराम की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। स्टोनस (stones) को धीरे-धीरे निकालने की कोशिश करनी चाहिए ताकि वे पित्ताशय के मुँह में इकट्ठे न हों और पित्त का रास्ता न रोकें ।
कुछ दिनों बाद ही रोगी को प्रेशर क्रिया से पता लगना शुरू हो जाएगा कि उसे आराम आ रहा है। उसका दर्द घटना शुरू हो जाएगा, कै आदि को मन नहीं करेगा और ज्वर की शिकायत जाती रहेगी । एक्युप्रेशर द्वारा केवल गालस्टोनस ही खत्म नहीं होते अपितु पित्ताशय तथा पित्त मार्ग (bile) tract) के कोई अन्य रोग हों तो वे भी दूर हो जाते हैं।
गालस्टोनस के रोगियों को तली हुई वस्तुएँ, वसा वाले पदार्थ तथा गैस पैदा करने वाली सब्जियाँ तथा भोजन नहीं खाने चाहिए।
संतुलित भोजन तथा सादा भोजन, जिस में ताजी सब्जियाँ, सलाद तथा फल हों, खाने से गालस्टोनस दूर भी हो जाते हैं और बनने भी बन्द हो जाते हैं । चीनी, तली हुई वस्तुएँ तथा वसा बंद करके विभिन्न विटामिन, खनिज लवण तथा ऐसा भोजन जिसमें प्रोटीन अधिक तथा कार्बोहाइड्रेट कम हो, लेने से पित्ताशय के रोग दूर हो जाते हैं। विटामिन-सी नियमित रूप में लेने से स्टोनस टूट कर शरीर से बाहर निकल जाते हैं।
गालस्टोनस के बारे में यह समझ लेना चाहिए कि अगर स्टोनस छोटे आकार के हैं तो वे एक्युप्रेशर या किसी अन्य प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से निकल जायेंगे और आगे से बनने भी बंद जो जायेंगे पर यदि उनका आकार बहुत बड़ा है और किसी प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से काफी लम्बे समय से दर्द बिल्कुल कम नहीं होता तो उस अवस्था में सर्जरी द्वारा पित्ताशय को निकालने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं रह जाता।
पाचन तंत्र के अन्य रोग
पाचन-तंत्र के अनेक रोग हैं, पर कुछ रोग ऐसे हैं जिनसे बहुत बड़ी संख्या में लोग हमेशा पीड़ित रहते हैं यथा :
- आमाशय के रोग, विशेष कर आमाशय का अर्बुद (stomach ulcer also called peptic ulcer) तथा आमाशय का दर्द।
- डयूडेनम (duodenum) के रोग विशेषकर ड्यूडेनम का अर्बुद (duodenal ulcer also called peptic ulcer)
- कोलन का दर्द (colic) तथा कोलन की सूजन (colitis) विशेषकर कोलन का अर्बुद (ulcerative colitis)
- अंतड़ियों के रोग विशेषकर अंतड़ियों के अबुर्द (tumours of the small intestines) अंतड़ियों में रुकावट (Intestinal obstruction partial or complete blockage of the intestines)
- अपेंडिसाइटिस अपेंडिक्स प्रदाह (appendicitis )
- कै (उल्टी – वमन), भूख न लगना, वजन में कमी तथा मल में खून आना ।
- पेचिस – डायसेन्टरी (dysentery), दस्त – डायरिया (diarrhea) तथा पेट में पानी (ascites) भरना ।
- कब्ज, बवासीर, भगन्दर तथा पेट गैस ।
- पेट दर्द, हिचकी तथा नाभिचक्र (solar plexus ) का अपने स्थान पर न रहना इत्यादि ।
पाचन तंत्र के साधारण एवं जटिल, सब रोगों में आमाशय, जिगर, पित्ताशय, ड्यूडेनम, अंतड़ियों, बड़ी आँत, मलाशय, गुदा यहाँ तक कि गुर्दों, मस्तिष्क, स्नायु संस्थान (nervous – system), पिट्यूटरी ग्रंथि (pituitary gland), आड्रेनल ग्रंथियों (adrenal glands), थाइरॉयड तथा पैरा-थाइरॉयड ग्रंथियों (thyroid and parathyroid glands) से सम्बन्धित हाथों तथा पैरों में प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए। जिस अंग से जो बीमारी सम्बन्धित है, उस अंग के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर विशेष रूप से प्रेशर दें।

पेट के सब रोगों में हाथों तथा पैरों के ऊपर सारे चैनलस (आकृति नं0 6) विशेषकर चौथे चैनल में अवश्य प्रेशर दें ।
दोनों अग्रभुजाओं पर (आकृति नं० 7) कलाई के ऊपर (on the inside of the wrist near the pulse) कोलन की सूजन (colitis) से सम्बन्धित एक प्रभावी केन्द्र है ।

पाचन तंत्र के सब रोगों में आकृति नं० 8 के अनुसार आठों प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर हाथ की तीन अँगुलियों के साथ बारी-बारी 3 सेकंड तक क्रमशः तीन बार हलका पर गहरा प्रेशर दें। खाना खाने से पहले किसी समय या खाना खाने के दो-तीन घंटे बाद पेट के इन केन्द्रों पर प्रेशर दें।

इसके अतिरिक्त खोपड़ी के पीछे (आकृति नं० 13) पर भी प्रेशर दें। पेट के रोगों में इस केन्द्र पर प्रेशर देना काफी गुणकारी रहता है।
चेहरे पर भी पाचन – अंगों सम्बन्धी कई प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं। पैरों तथा हाथों में विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने के साथ इन केन्द्रों पर भी प्रेशर देना चाहिए।
पाचन सम्बन्धी रोगों को शीघ्र दूर करने के लिए पीठ पर रीढ़ की हड्डी से थोड़ा हट कर (आकृति नं० 9) ऊपर से नीचे तीन बार प्रेशर देना चाहिए। पिण्डलियों के मध्य में प्रेशर देने से पेट का दर्द तो कम होता ही है. पाचन-तंत्र के कई अन्य रोग भी दूर होते हैं।

अपेंडिसाइटिस के रोग में पीठ पर (आकृति नं0 9) कुहनियों के लगभग समानान्तर दोनों तरफ अँगूठों के साथ प्रेशर देने से दर्द धीरे-धीरे दूर हो जाता है। अर्बुद तथा अपेंडिसाइटिस के रोग में अगर प्रेशर देने पर भी थोड़ा आराम न आए तो डाक्टर की सलाह अवश्य लें दस्त (diarrhea) लगने की हालत में हाथों के ऊपर अँगूठे तथा पहली अँगुली के मध्य वाले भाग पर भी प्रेशर दें। यह केन्द्र कई रोगों से सम्बन्धित है।
दूसरे रोगों की भाँति पाचन तंत्र के रोगों का भी यथाशीघ्र इलाज कराना चाहिए क्योंकि अगर अर्बुद जैसे रोग बढ़ते रहें तो काफी भयानक हो सकते हैं एक्स-रे, इन्डोस्कोपी, अलटरा-साऊँड, स्कैन तथा दूसरी कई प्रकार की जाँच से पेट के रोगों का सही ज्ञान हो जाता है । इलाज का अपना महत्त्व है पर पेट के रोगों में सबसे महत्त्वणीय पक्ष यह है कि रोग के अनुसार उपयुक्त भोजन पदार्थों का चयन किया जाये। मिर्च मसाले, टीनबंद खाद्यपदार्थ, मांस, शराब, सिगरेट, तम्बाकू, ठंडे पेय, चाय, काफी तथा गले सड़े फल पाचन खराब करके रोग लगाते हैं। सादा और ताजा सुपाच्य भोजन सबसे अच्छा भोजन है। रात्रि का भोजन सोने से दो-तीन घटे पहले तथा भूख से थोड़ा कम लेना चाहिए। भोजन के साथ नहीं पर दिन में 8-10 गिलास पानी अवश्य पीना चाहिए जिस पदार्थ के खाने या पीने से रोग बढ़े, वह न लें। भोजन को अच्छी प्रकार चबा कर तथा धीरे-धीरे खायें दर्दनाशक गोलियाँ या तो बिलकुल न लें या बहुत कम लें क्योंकि ये पाचन खराब करती हैं।
पेट के अनेक रोगों को दूर करने के लिए लहसुन मनुष्य को कुदरत की अनूठी देन है। लहसुन खाने की उत्तम विधि यह है कि रात को एक गिलास पानी ढक कर रख दें। सवेरे सबसे पहले खाली पेट दो से पाँच लहसुन की कलियाँ छीलकर, अच्छी तरह चबा कर रात रखे पानी से निगल जायें। एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए भी इस प्रकार लहसुन खाना बहुत लाभदायक है। यह केवल पेट के रोगों के लिए ही नहीं अपितु अनेक अन्य रोगों यथा उच्च रक्तचाप तथा सेक्स की कमजोरी में भी बहुत गुणकारी है।
कब्ज, बवासीर, भगन्दर (Constipation, Piles-Hemorrhoids, Anal Fistula)
कब्ज और बवासीर दो ऐसे रोग हैं, जिन से संसार में बहुत बड़ी संख्या में लोग पीड़ित हैं। एक आम कहावत है कि कब्ज अनेक रोगों की नानी है। गठिया, उच्च रक्तचाप, सिरदर्द, वेरीकोज़ वेनज़, पीठ दर्द, गैस तथा अनिंद्रा आदि अनेक रोग मुख्यतः पुरानी कब्ज के कारण ही होते हैं। कब्ज तथा बवासीर की भाँति भगन्दर- नासूर (Anal Fistula) आम रोग नहीं है। गुदा मार्ग के अन्दर नासूर बन कर उससे पस निकलने के साथ इस रोग में काफी दर्द भी होता है।
कब्ज : दैनिक भोजन के पाचन के पश्चात् आँतों में समय से अधिक देर तक मल का रुके रहना ही कब्ज कहलाता है। पाचन का आदर्श सिद्धांत यह है कि जो व्यक्ति दिन में दो बार भोजन करता है, उसे शौच भी दो बार जाना चाहिए, अगर वह दिन में एक बार जाता है, तो पेट पूरी तरह साफ नहीं होता, दिन में बार-बार शौच जाना या कई-कई दिन तक शौच न जाना कब्ज कहलाता है।
कब्ज खाने-पीने की अनेक त्रुटियों, शौच आने पर रोकने की प्रवृत्ति, शारीरिक परिश्रम या व्यायाम न करने, अधिक परिश्रम के बाद बिल्कुल आराम न करने, चिंता तथा गलत विचार रखने तथा आँतों की कमजोरी के कारण होती है। मैदे से निर्मित वस्तुएँ खाने, बिना भूख खाने, बार-बार खाने, भोजन में अधिक मिर्च-मसाले तथा अचार खाने, भोजन में सब्जियों के अभाव, भोजन के बीच में पानी पीने तथा शीघ्र शीघ्र बिना चबाए भोजन खाने से कब्ज होती है। अधिक देर तक कुर्सी इत्यादि पर बैठकर काम करते रहने से भी कब्ज हो जाती है ।
कब्ज दूर करने के लिए यह बहुत जरूरी है कि कुछ प्राकृतिक नियमों का पालन किया जाए। पूरी नींद, नियमित रूप से व्यायाम तथा सैर व पर्याप्त मात्रा में लगभग 8-10 गिलास पानी प्रतिदिन पिया जाए, खाने के मध्य में नहीं अपितु भोजन से लगभग आधा घंटा पहले या एक घंटा बाद पानी पीना चाहिए। भोजन में मोटे पिसे आटे की रोटी, थोड़ा मक्खन, अधिक सब्जियों विशेषकर पत्तेदार सब्जियों, केले के अतिरिक्त सब फल, अंकुरित दालों तथा सलाद का प्रयोग करना चाहिए। अधिक मिर्च-मसाले वाले तथा तले हुए पदार्थ खाने से परहेज करना चाहिए ।
अच्छा रहेगा अगर चीनी तथा चीनी से बनी चीजें बिल्कुल न खायें भोजन अच्छी तरह चबा कर खाना चाहिए तथा रात्रि का भोजन सोने से लगभग दो-तीन घंटे पहले लेना चाहिए । रात को सोने से पहले या सवेरे शौच जाने से पहले एक गिलास हलके गर्म पानी में आधा नींबू तथा एक-दो चम्मच शहद मिलाकर पीना चाहिए सप्ताह में एक दिन उपवास रखना चाहिए, प्रतिदिन ठंडे पानी से स्नान करना चाहिए तथा अधिक विषय-वासना से संकोच करना चाहिए। क्रोध, मानसिक चिंता से दूर रहना चाहिए तथा नशीले पदार्थों का सेवन त्यागना चाहिए ।
बवासीर जिसे ‘पाइल्स’ (Piles) या ‘हीमोरॉइडस’ (Hemorrhoids) का रोग कहते हैं, दो प्रकार की होती है – बादी (सूखी) बवासीर तथा खूनी बवासीर । बवासीर स्वयं तो एक कष्टकर रोग है ही पर यह रोग अधिक देर तक बने रहने के कारण कई अन्य रोगों का कारण बन जाता है। बवासीर का मुख्य कारण प्रायः कब्ज होता है या फिर वही सब कारण होते हैं जिनसे कब्ज होती है। इसके अतिरिक्त कई अन्य कारण भी होते हैं । स्त्री रोगों तथा पुरुषों की पुरःस्थ ग्रन्थि की सूजन के कारण भी यह रोग हो जाता है। कई बार यह रोग पैतृक भी होता है।
एक्युप्रेशर द्वारा कब्ज तथा बवासीर दूर करने का ढंग प्राकृतक नियमों को अपनाने के अतिरिक्त एक्युप्रेशर द्वारा कब्ज तथा बवासीर के रोग कुछ ही दिनों में दूर किये जा सकते है | इसके लिए उपरोक्त बताए पाचन तथा दूसरे अंगों से सम्बन्धित सारे प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रतिदिन एक बार, अगर हो सके तो दो बार, सवेरे शाम प्रेशर देना चाहिए। अगर बवासीर का कारण प्रजनन अंगों में कोई विकार हो तो बाकी सब केन्द्रों के साथ-साथ इन अंगों से सम्बन्धित केन्द्रों पर भी प्रेशर दें।

इसके अतिरिक्त दोनों टाँगों के निचले भाग व एड़ियों के बाहरी सख्त भाग (आकृति नं० 10) पर मालिश की भाँति या वैसे प्रेशर दें ये केन्द्र भगन्दर (anal fistula) दूर करने के लिए मुख्य केन्द्र हैं। कब्ज दूर करने के लिए सवेरे उठते समय पेशाब से निवृत हो कर चारपाई या भूमि पर सीधा लेटकर पेट पर नाभि से थोड़ा नीचे बायीं तरफ हाथों की अँगुलियोंसे कुछ सेकंड के लिए तीन बार गहरा प्रेशर देकर बाद में शौच को जायें ।
कब्ज, बवासीर तथा भगन्दर दूर करने के लिए दोनों हाथों पर भी केन्द्र हैं । एक केन्द्र अँगूठे के साथ कलाई पर होता है।
जबकि दूसरा केन्द्र हाथ के ऊपर अँगूठे और पहली अँगुली के त्रिकोने स्थान पर होता है जैसाकि आकृति नं० 11 में दिखाया गया है। अगर एक्युप्रेशर द्वारा भगन्दर दूर न हो तो डाक्टर की सलाह लें।

चेहरे के निम्न भाग टोडी ( आकृति नं० 12) पर भी इन रोगों से सम्बन्धित एक बहुत ही प्रभावी केन्द्र है। इस केन्द्र पर हाथ के अँगूठे या अँगुली से कुछ सेकंड के लिए थोड़ा सख़्त प्रेशर देना चाहिए।

बदहजमी, पेट गैस : शायद ही कोई ऐसा परिवार हो जिसमें किसी न किसी सदस्य को बदहजमी तथा पेट गैस की बीमारी न हो। गैस तथा बदहजमी का मुख्यतः सम्बन्ध आमाशय तथा आंतड़ियों के विकारों से है। कई लोगों को पेट गैस इतनी अधिक होती है कि वे घंटों भर लगातार डकार लेते रहते हैं या लगातार गुदामार्ग द्वारा गैस खारिज करते रहते हैं
क्योंकि इसके निकलने के दो ही मार्ग हैं मुँह से डकार द्वारा तथा गुदामार्ग द्वारा गैस बनने से डकार आने के साथ प्रायः दिल मचलना, छाती तथा पेट की जलन, मुँह में खटास तथा मुँह में पानी आना, पेट और सिर में दर्द, कै होना, वायुगोला, साँस में दुर्गंध, अच्छी तरह नींद न आना, सारा दिन बेचैन तथा परेशान रहना, सुस्ती तथा घबराहट इसके आम लक्षण हैं।
अगर बदहजमी – गैस बढ़ जाएँ तो कई रोगियों को पेट में शूल की भाँति दर्द होता है, यहाँ तक कि उनके लिए उठना-बैठना भी मुश्किल हो जाता है। दर्द थोड़े समय से लेकर कई दिनों तक लगातार रहता है।
गैस बनने के कई कारण हो सकते हैं। गैस रहने वाले व्यक्ति को बड़ी सावधानी से नोट करना चाहिए कि कौन से खाद्य पदार्थ खाने से उसे गैस की शिकायत हो जाती है, ऐसे पदार्थों का त्याग करना चाहिए। गैस वाले व्यक्ति को कब्ज दूर करने का उपाय करना चाहिए, तली हुई वस्तुएँ तथा मिर्च-मसाले वाले पदार्थों को नहीं खाना चाहिए। भोजन को अच्छी तरह चबाकर खाना चाहिए तथा भर पेट एक समय नहीं खाना चाहिए। थोड़े-थोड़े समय बाद कुछ हलकी वस्तु यथा फल, बिस्कुट या थोड़ा सा ठंडा दूध लेना चाहिए। गैस के रोग में गर्म दूध व दही कम लेनी चाहिए क्योंकि ये गैस बनाते हैं।
भोजन के साथ पानी बिल्कुल नहीं पीना चाहिए। पानी भोजन से लगभग आधा घंटा पहले या एक घंटा बाद पीना चाहिए। रात्रि का भोजन सोने से दो-तीन घंटे पहले लेना चाहिए और रात्रि का भोजन लेने के बाद थोड़ा सा चलना फिरना चाहिए। गैस वाले रोगी को पानी उबाल कर पीना चाहिए। सवेरे पानी उबाल कर रख लेना चाहिए। वही उबला पानी सारा दिन प्रयोग करना चाहिए। उबालने के बाद नीचे का थोड़ा सा पानी जिसमें कुछ द्रव्य बैठ जाते हैं वह पानी नहीं पीना चाहिए, शेष पानी पीने के काम लाना चाहिए। गर्मियों में उबले हुए पानी को ठंडा करने के लिए मटके या फ्रिज में रखा जा सकता है।
गैस वाले रोगी के लिए खाने के साथ थोड़े से लहसुन तथा भोजन में अंकुरित दालों का सेवन गुणकारी रहता है। चिंता तथा अशांति बदहजमी तथा गैस के प्रमुख कारण हैं, अतः इन्हें त्यागें। अगर गैस का रोग काफी बढ़ जाए तो कुछ दिनों के लिए पूर्ण आराम करें !
अदरक का रस ओर नींबू का रस शहद में मिलाकर दो चम्मच मिश्रण, दिन में तीन-चार बार लेने से भी गैस दूर होती है। बदहजमी, पेट गैस, अफारा, पेट दर्द तथा पेट के कई अन्य रोग दूर करने के लिए आप निम्न वस्तुओं का घर में चूर्ण बना सकते हैं जो कि बहुत ही उपयोगी सफेद जीरा 50 ग्राम, काला जीरा 50 ग्राम, सूखा आंवला 50 ग्राम; सूखा पुदीना 50 ग्राम, अजवाइन 50 ग्राम, सौंफ 50 ग्राम, काली मिर्च 25 ग्राम, मोटी इलाची 25 ग्राम, काला नमक 25 ग्राम, पाकिस्तानी नमक 25 ग्राम, नशादर टीकरी 25 ग्राम, छोटी इलाची 20 दाने, बैड़े 7, जैफल 2 तथा मगां 10 ग्राम। इसके अतिरिक्त 25 ग्राम हरड़ को देसी घी में भून लें। इन
सब वस्तुओं को बारीक पीस कर बारीक छाननी से छान लें। 10 ग्राम हींग को देसी घी में भून कर तथा बारीक पीस कर सारे मिश्रण में मिला लें। इस मिश्रण का आधा चम्मच दिन में दो बार हलके गर्म पानी से लें। पेट गैस तथा पेट दर्द के रोग बहुत शीघ्र दूर हो जाएँगे ।
पेट दर्द पेट दर्द के कई कारण होते हैं। यदि दर्द नाभि के ऊपरी भाग में दाहिनी तरफ है तो यह जिगर या पित्ताशय के किसी रोग, फेफड़े के आवरण में सूजन, गुर्दे की सूजन या पत्थरी के कारण हो सकता है। यदि दर्द छाती की हड्डी के नीचे, मध्य भाग में है तो इसका कारण पित्ताशय या अग्न्याशय प्रदाह तथा हृदय का कोई रोग हो सकता है। यदि दर्द बायीं तरफ है तो हो सकता है कि उसका प्रमुख कारण तिल्ली – स्पलीन या अग्न्याशय प्रदाह, गुर्दे की सूजन, पत्थरी तथा फेफड़े के आवरण का रोग हो।
अगर दर्द नाभि के नीचे पेट के दायीं तरफ है तो उसका कारण अपेंडिक्स, डिम्बग्रंथि, गर्भाशय नलिका या कोलन का रोग तथा गवीनी (ureter) में पत्थरी अथवा हर्निया हो सकता है। नाभि के बायीं तरफ दर्द का कारण प्रायः गवीनी में पत्थरी, डिम्बग्रंथि या गर्भाशय नलिका में विकार, कोलन का कोई रोग तथा हर्निया हो सकता है। अगर दर्द का केन्द्र नाभि के निचले भाग में है तो इसका कारण मूत्राशय, प्रजनन अंगों विशेषकर स्त्रियों के गर्भाशय में कोई विकार हो सकता है। गैस के कारण भी पेट में दर्द हो जाता है। पेट दर्द दूर करने के लिए पाचन-तंत्र के सभी अंगों तथा प्रभावित अंगों के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर विशेष रूप से प्रेशर देना चाहिए।
हिचकी : लगातार हिचकी भी काफी दुःखदायी होती है । हिचकी दूर करने के लिए खोपड़ी तथा पीठ के ऊपरी भाग पर ( आकृति नं० 13 – प्वाइण्ट 1 तथा 14) पर प्रेशर देने के अतिरिक्त थाइरॉयड, गुर्दों, आमाशय, जिगर कोलन तथा अंतडियों से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर दें। जिन लोगों को लगातार कई दिनों से हिचकी रहती है, उपरोक्त बताए केन्द्रों पर प्रेशर देने से यह बहुत जल्दी दूर हो जाती है।

नाभिचक्र ठीक न रहना (Disorder of Solar Plexus )
शरीर को रोग मुक्त रखने में नाभिचक्र का विशेष महत्त्व है। अगर नाभिचक्र ठीक न रहे, अपने स्थान से हिल जाए, अर्थात् धरन पड़ जाए तो भी कई रोग लग जाते हैं यथा कब्ज या फिर दस्त लग जाना, गैस, जी मचलाना, भूख न लगना, सुस्ती, थकावट तथा पेट में दर्द इत्यादि । अधिक बोझ उठाने, पाचन अंगों में कोई विकार होने तथा गैस आदि की लगातार शिकायत रहने से प्रायः नाभिचक्र अपने स्थान से हिल जाता है जिसे आम तौर पर ‘धरन’ पड़ना कहते हैं । यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि दवाइयों से धरन का इलाज सम्भव नहीं है । नाभिचक्र (solar plexus) ठीक न रहने के कारण कई अन्य रोग भी लग जाते हैं या बढ़ जाते हैं।
नाभिचक्र अपने स्थान पर है या नही, यह जानने के लिए प्रातःकाल बिना खाये – पीये पीठ के बल सीधा लेट जाना चाहिए और हाथ बगल में शरीर के साथ सीधे रखें। कोई अन्य व्यक्ति एक धागा लेकर नाभि से छाती की एक तरफ की निपल तक पैमाइश करे, नाभि पर एक हाथ रखे धागा दूसरी तरफ की निपल तक ले जाएँ, अगर दोनों तरफ का नाप एक जैसा है तो नाभिचक्र अपने स्थान पर है, अन्यथा नहीं अगर नाभिचक्र ठीक है तो नाभि के ऊपर अँगुलियों से दबाव देने से जोर-जोर से आँत धड़कने की गति प्रतीत होती है, अन्यथा जिस स्थान पर हिल कर गई हो वहाँ अँगुलियाँ रखने से स्पंदन का आभास होगा।
नाभिचक्र की परख करने का एक अन्य ढंग भी है। सवेरे बिना खाये पीये पीठ के बल दोनों टाँगें लम्बी करके लेट जाएँ। दोनों घुटने एवं दोनों पैर आपस में साथ-साथ हों। अगर धरन पड़ी हुई होगी तो किसी एक पैर का अंगूठा दूसरे से कुछ ऊँचा होगा जैसाकि आकृति नं० 14 में दर्शाया गया है।

अर्थात् दोनों अँगूठे बराबर नहीं होंगे। धरण ठीक करने के लिए सबसे आसान ढंग यह है कि जो अँगूठा नीचे है उसको हाथ के साथ ऊपर की ओर खींच कर (देखिए आकृति नं० 14) दूसरे के बराबर करें। दो-तीन बार ऊपर की ओर खींचने पर धरन अपने स्थान पर आ जाएगी। अन्यथा जो अँगूठा ऊपर की ओर है उसके घुटने पर हथेली के साथ हलका हलका दबाव देने से अँगूठा नीचे की ओर आ जाएगा और दोनों अँगूठे आपस में बराबर हो जायेंगे। यह क्रिया रोगी स्वयं नहीं अपितु कोई दूसरा व्यक्ति ही कर सकता है।
इसके अतिरिक्त पैरों तथा हाथों में भी नाभिचक्र सम्बन्धी केन्द्र हैं जैसाकि आकृति नं० 15 में दिखाया गया है। इन केन्द्रों पर सवेरे निराहार प्रतिदिन प्रेशर देना चाहिए। कुछ दिनों बाद नाभिचक्र अपने स्थान पर आ जाएगा। ठीक होने पर भी इन केन्द्रों पर प्रेशर देते रहना चाहिए।

इस सम्बन्ध में एक अन्य ढंग भी है जो काफी प्रभावी है। सवेरे निराहार भूमि पर या किसी सख्त तख्ते की चारपाई (hard bed ) पर कमर सीधी तथा टाँगें लम्बी करके बैट जायें। पहले दायीं टाँग को मोड़ कर ( आकृति नं० 276) बायी टाँग पर घुटने के समीप रख कर दायें हाथ से दायें घुटने को थोड़ा सा दबाव देकर भूमि या चारपाई पर लगाने की कोशिश करें।

दबाव तीन-चार बार तथा उतना दें जितना आप सहन कर सकें। दबाव किसी दूसरे व्यक्ति से भी दिलवाया जा सकता है। उसी तरह बायें घुटने को नीचे लगाने की कोशिश करें । इस प्रकार यह क्रिया करने से कुछ दिनों बाद धरन अपने स्थान पर आ जायेगी। धरन ठीक स्थान पर लाने के लिए ऊपर बताई गई विधियों में से कोई एक या फिर एक से अधिक विधियाँ भी अपनाई जा सकती हैं।