नाक के रोगों का एक्युप्रेशर से उपचार

नाक के रोगों का एक्युप्रेशर से उपचार

पुराना जुकाम-नज़ला, साइनसाइटिस, नकसीर, हे फीवर

(Chronic Head Colds, Acute Sinusitis, Epistaxis, Hay Fever)

नाक की बीमारियों में जुकाम-नज़ला, साइनस की सूजन या पीव आना, नकसीर (nose bleed, epistaxis) तथा हे फीवर आदि प्रमुख हैं ।

जुकाम-नज़ला अर्थात् नाक से रेशा बहने का कारण सर्दी लगना, सर्दी के साथ बुखार होना तथा नासिकगुहा में संक्रमण होना है। ऐसी स्थिति में नाक में प्रायः सूजन आ जाती है । नासिका – गर्तदाह में बहुत दिनों तक संक्रमण रहने से भी नाक बहता रहता है। सिर में चोट लग जाने के कारण भी कुछ लोगों के नाक से रेशा जाना शुरू हो जाता है।

नासिकागुहा के समीप खाली स्थानों तथा खोपड़ी में खाली स्थानों जिनका सम्बन्ध नाक के भीतरी भाग से रहता है, में सूजन हो जाने को साइनसाइटिस (sinusitis) कहते हैं । जब ये संक्रामक हो जाते हैं तो माथे तथा ऊपरी जबड़े और मुख में दर्द शुरू हो जाता है, नाक से तरल पदार्थ बहना शुरू हो जाता है और मुँह से दुर्गंध आने लगती है । खोपड़ी में तथा नासिकागुहा के पास कई साइनस हैं जिनको विभिन्न नाम दिए गए हैं।

ऐसा देखा गया है कि जन्म के समय बच्चों में ‘साइन्स’ या तो बिल्कुल नहीं होते या फिर बहुत छोटे आकार के होते हैं। छः सात वर्ष की आयु में जब हड्डियों का तेजी के साथ विकास होता है तो ‘साइन्स’ की भी काफी वृद्धि होती है। ‘साइनस’ के बारे में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि बहुत से साइनस को रक्त की सप्लाई मस्तिष्क (brain) से होती है और इनका रक्तवाहिनियों (veins) द्वारा खोपड़ी से बाहर दूसरे कई अंगों से सम्पर्क रहता है।

नाक की ऍलर्जी जिसे हम जुकाम, नजला, छीकें आना तथा रेशा बहना (head-colds common-cold and sinusitis) कहते हैं, के बारे में यह विचार है कि यह रोग कीटाणुओं से होता है जो श्वासोच्छवास मार्ग के ऊपरी भाग (upper respiratory tract) में हमेशा मौजूद रहते हैं। जब शरीर स्वस्थ रहता है तो ये कीटाणु दुर्बल रहते हैं परन्तु ज्योंही ठंड आदि लगने के कारण शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है या जिन व्यक्तियों के शरीर की प्रतिरोध शक्ति (resistance power) कम हो जाती है तो उनमें ये सशक्त हो जाते हैं।

जुकाम-नज़ला के कई लक्षण है यथा सर्दी के साथ शरीर में कंपन शुरू होनी, छींके आना, नाक और आँखें लाल हो जाना, सिर में दर्द और सिर का भारी प्रतीत होना, नाक से रेशा बहना, आँखों से पानी निकल आना, गले का दर्द और अधिक प्यास लगना इत्यादि। इसके अतिरिक्त बाजुओं, गर्दन तथा पीठ में भी दर्द होने लगता है और हलका हलका बुखार भी हो जाता है।

सूंघने और स्वाद की शक्ति कमजोर हो जाती है। ज्यों-ज्यों रोग पुराना होता जाता है त्यों-त्यों सिर, नाक और गले के अतिरिक्त छाती के भी कई रोग हो जाते हैं जैसे श्वास-नाली का प्रदाह (acute bronchitis), दमा (asthma) तथा फेफड़ों में सूजन (pneumonia) इत्यादि ।

तेज साइनस (acute sinusitis) की अवस्था में ऊपर के जबड़ों के दाँतों में दर्द होने लगता है। कई बार गलती से इस दर्द को दाँतों का मूल दर्द मानकर दाँत निकाल दिए जाते हैं । साइनस के कारण आँखों में भी दर्द हो जाता है और आँखों के आसपास सूजन आ जाती है। आलस्य और सुस्ती के अतिरिक्त कई बार उल्टियाँ भी लग जाती हैं।

एक विचार यह भी है कि अभी तक जुकाम-नज़ला होने का कोई ठोस कारण पता नहीं चल सका है और न ही इसका कोई पक्का इलाज मिल सका है। पुराने साइनसाइटिस (chronic acute sinusitis) में जो दवाइयाँ भी दी जाती हैं उनका असर भी थोड़े समय के लिए रहता है और कुछ दिनों बाद रोग फिर वैसे का वैसा हो जाता है।

साइनस (sinuses) सिर की हड्डियों के बीच वे रिक्त स्थान हैं जो वायु से भरे रहते हैं । सारे साइनस नाक की ऊपरी गुहा में (all of them open into the nasal cavities) खुलते हैं, इसलिए इनका ठंड से ग्रस्त हो जाना स्वाभाविक है। साइनस के दो महत्त्वणीय कार्य है ।

  1. ये आवाज को प्रतिध्वनि ( resonance to the voice) देते हैं। जिन लोगों को काफी समय से साइनसाइटिस की तकलीफ हो उनकी आवाज स्पष्ट न होकर कुछ विकृत या दब कर निकलती है।
  2. साइनस का दूसरा प्रमुख कार्य यह है कि ये गर्दन पर सिर की हड्डियों का बोझ प्रतीत नहीं होने देते और खोपड़ी के बोझ को सामान्य रखते हैं। अगर ऐसा न हो तो हमेशा सिर डाँवाडोल रहे, कभी एक तरफ गिरे कभी दूसरी तरफ जब साइनस में वायु की जगह तरल पदार्थ या पीव (fluid or pus) ले लेते हैं तो सिर भारी रहने लगता है।

शरीर विज्ञान के अनुसार प्रकृति शरीर से उन सब मृत और घिस गए सैलों को बाहर निकाल कर उनका स्थान नए सैलों को देती रहती है। इस तरह शरीर में विषैला पदार्थ इकट्ठा न होकर बाहर निकलता रहता है। सिर आदि से विषैला पदार्थ जो कि काफी सूक्ष्म होता है, साइनस के द्वारा नाक और गले से बाहर आता रहता है।

इसके अतिरिक्त मृत सैल और विषैला पदार्थ त्वचा के मार्ग से पसीने द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। अगर यह विषैला पदार्थ त्वचा और गले आदि के मार्ग से बाहर न निकले तो वहाँ एकत्र होकर और भी दुःखदायी बन जाता है जैसाकि साइनस के बहुत से रोगियों में देखने को मिलता है।

पर इसके विपरीत अगर विषैला पदार्थ साइनस की प्रक्रिया द्वारा नाक के मार्ग से लगातार बहना शुरू हो जाए तो भी इसे रोग समझना चाहिए क्योंकि सिर के विभिन्न अंगों की किसी भी प्रक्रिया में कोई नुक्स हो सकता है जिसके कारण अनियमित रूप से ऐसा पदार्थ निकलता रहता है।

रोग निवारण के लिए प्रमुख प्रतिबिम्ब केन्द्र

जुकाम-नज़ला, साइनसाइटिस (head colds, common cold and sinusitis) आदि के रोगियों को एक्युप्रेशर पद्धति द्धारा बहुत जल्दी आराम मिलता है। वर्षों के रोग केवल कुछ दिनों में ही दूर हो जाते हैं। अधिकतर साइनस क्योंकि सिर में स्थित हैं और इनकी स्थिति भी बड़ी सूक्ष्म है, उसी अनुसार इनसे बहने वाला तरल पदार्थ भी बड़ा सूक्ष्म होता है ।

इसी तरह पैरों तथा हाथों में साइनस से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्र भी बड़े सूक्ष्म स्थानों में होते हैं । दोनों पैरों तथा दोनों हाथों की सारी अँगुलियों के अग्रभागों (tips) में ये केन्द्र होते हैं । इनकी स्थिति तथा इन पर प्रेशर देने का ढंग आकृति नं० 1 में दर्शाया गया है।

आकृति नं० 1

इसके अतिरिक्त पैरों तथा हाथों के अंगूठों तथा अंगुलियों के ऊपरी भाग पर भी अंगूठे के साथ ( आकृति नं0 2) प्रेशर देना चाहिए क्योंकि ये भाग भी साइनस से सम्बन्धित हैं ।

आकृति नं० 2

सहयक प्रतिबिम्ब केंद्र

रोग की अवस्था में उपरोक्त प्रमुख केंद्रो के अतिरिक्त पिटयूटरी ग्रंथि, आड्रेनल ग्रंथि, लसीकातंत्र तथा स्नायुतंत्र विशेष कर गर्दन वाले भाग से सम्बनधित प्रतिबिम्ब केंद्रों पर भी प्रेशर देना चाहिए। इन केन्द्रों की पैरों तथा हाथों में स्थिति तथा इन पर प्रेशर देने का ढंग आकृति नं० 3 में दर्शाया गया है।

आकृति नं० 3

जुकाम-नज़ला तथा नकसीर के रोगों में गर्दन के पिछले भाग पर प्रेशर देने से भी ये रोग बहुत जल्दी दूर हो जाते हैं। सबसे पहले खोपड़ी और गर्दन की मिलन रेखा के मध्यभाग (medulla oblongata) के स्थान पर ( आकृति नं० 4 प्वाइण्ट 1 ) अँगूठे के साथ लगभग दो-तीन सेकंड तक तीन बार, रोगी की सहनशक्ति अनुसार गहरा प्रेशर दें।

आकृति नं० 4

इसके बाद क्रमशः प्वाइण्ट 2, 3, 4, 5, 6 तथा 7 पर लगभग दो-तीन सेकंड प्रति प्वाइण्ट, तीन बार प्रेशर दें। इन केन्द्रों पर प्रेशर देने के बाद दोनों हाथों की अँगुलियों या अँगूठो से गर्दन पर रीढ़ की हड्डी के दोनों तरफ लगभग आधा इंच की दूरी पर 1 से 12 प्वाइण्टस पर तीन बार प्रेशर दें।

नाक के निचले भाग पर दोनों तरफ प्रेशर देने से जहाँ जुकाम तथा नज़ला दूर होता है। वहाँ नकसीर के लिए यह बहुत प्रभावशाली केन्द्र हैं। इन केन्द्रों की स्थिति आकृति नं० 5 में दिखाया गया है।

आकृति नं० 5

पहले दर्शाए गए प्रतिबिम्ब केन्द्रों के अतिरिक्त इन रोगों से सम्बंन्धित हाथों के ऊपर त्रिकोने भाग में भी एक प्रभावशाली केन्द्र होता है। इस केन्द्र की स्थिति को आकृति नं० 6 में दर्शाया गया है। यह केन्द्र आँखों, कानों तथा कई अन्य रोगों से भी सम्बन्धित होता है।

आकृति नं० 6
आकृति नं० 7

हाथों तथा पैरों के ऊपरी भाग पर सारे चैनलस (channels) में प्रेशर देने से इन रोगों का जोर काफी कम हो जाता है। इन केन्द्रों की स्थिति को आकृति नं० 7 में दर्शाया गया है।

इन रोगों में सिर प्रायः भारी रहता है, अतः माथे पर भौंहों के आखिरी हिस्सों के समीप अँगूठों के साथ दो-तीन बार 2-3 सेकंड प्रतिबार प्रेशर देने से सिर काफी हलका हो जाता है तथा ये रोग दूर करने में सहायता मिलती है।

जुकाम-नज़ला के कारण अगर दमा हो जाए या छाती में दर्द हो जाए तो पीठ के ऊपरी भाग पर रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ प्रेशर दें। अगर जुकाम आदि के कारण सर्दी लगने लगे तो दोनों कानों के पीछे जबड़ों (jaws) के पीछे गड वाले स्थान पर प्रेशर दें ।

हाथों, पैरों, चेहरे, गर्दन तथा पीठ पर विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देने के अतिरिक्त जुकाम-नज़ला तथा साइनसाइटिस रोगियों को ‘विटामिन सी’ अधिक मात्रा में लेना चाहिए। अगर यह रोग बढ़े हुए हों तो कुछ दिनों के लिए विटामिन सी 1500 मिलीग्राम प्रतिदिन तक लिया जा सकता है अर्थात् 500 mg की टिकिया दिन में तीन बार ।

जुकाम-नज़ला, साइनसाइटिस तथा श्वास रोगों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए चोकर का पेय भी काफी लाभदायक है। यह पेय बनाने तथा लेने की विधि इस प्रकार है:-

गेहूं के आटे को छानकर एक बड़ा चम्मच चोकर ले लें, पाँच पत्ते तुलसी, 5 दाने कालीमिर्च तथा थोड़ा सा अदरक ये चारों चीजें लगभग एक गिलास पानी में डालकर उबालें जब पानी उबलकर एक कप जितना रह जाये तो उसे उतारकर उसमें अपने स्वाद अनुसार आधा, एक या दो चम्मच शहद या चीनी डालकर हलका सा गर्म प्रातः खाली पेट पी लें। इसी प्रकार रात्रि को सोने के पहले यह पेय तैयार कर के पी लें।

सवेरे तथा रात्रि को दोनों समय ताजा पेय तैयार करके ही लें दस-पन्द्रह दिनों तक यह पेय लेने से इन बीमारियों में आश्चर्यजनक लाभ पहुँचता है। जरूरत अनुसार यह पेय अधिक दिनों तक भी लिया जा सकता है।

एक्युप्रेशर द्वारा पुराने रोग के निवारण में कुछ समय लग सकता है पर ऐसा नहीं हो सकता कि सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर नियमित रूप से प्रेशर देने से रोग न जाए ऐसा भी देखा गया है कि पुराने रोग की हालत में बाजुओं, गर्दन तथा पीठ में दर्द रहने लगता है। ऐसी स्थिति में इन अंगों से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी प्रेशर देना चाहिए।

नकसीर फूटने की स्थिति में खोपड़ी तथा गर्दन के मिलन के मध्यभाग (आकृति नं० 4 में दर्शाव प्वाइण्ट 1) पर तथा आकृति नं० 105 अनुसार नाक के निचले भाग पर दोनों ओर प्रेशर दें। हाथों तथा पैरों की अंगुलियों के अग्रभागों पर भी प्रेशर देने से (आकृति नं० 1) नकसीर रुक जाती है। आड्रेनल ग्रन्थियों ( adrenal glands) सम्बन्धी केन्द्रों पर भी प्रेशर देना चाहिए। इसके साथ सिर के बिल्कुल मध्य वाले भाग में ( आकृति नं० 8) लगभग 3 सेकंड तक तीन बार हलका प्रेशर दें अधिक रक्तचाप तथा गुर्दे के रोग भी नकसीर के कारण बन सकते हैं।

आकृति नं० 8

अतः इन रोगों सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर प्रेशर देना चाहिए। इस रोग के कई अन्य कारण भी हो सकते हैं यथा सिर में चोट लगना, हड्डी का टूटना, एलर्जी तथा फोड़ा – गिल्टी इत्यादि । अगर एक्युप्रेशर द्वारा इलाज करने से भी नकसीर न रुके तो डाक्टर की सलाह लेना आवश्यक है।

नकसीर फूटने पर रोगी को सीधा बैठाकर सिर गर्दन से पीछे की ओर रखें। अगर रोगी बैठ न सके तो उसे लिटाकर सिर के नीचे सिरहाना रखें ताकि सिर शरीर के दूसरे भागों से ऊँचा रहे। इसके साथ ही रोगी के कमीज आदि के बटन खोल दें और उसे मुँह से साँस लेने को कहें । किसी कपड़े में बर्फ का टुकड़ा लपेट कर रोगी की नाक पर रखने से भी नकसीर रोकने में सहायता मिलती है।

नाक के समस्त रोगों में हाथों तथा पैरों के अँगूठों के साथ-साथ, तलवों में अँगूठों के भाग तथा थोड़ा सा नीचे के हिस्से व अँगूठों के बिल्कुल नीचे (आकृति नं० 9) तथा हाथों के ऊपर त्रिकोने स्थान पर प्रेशर दें।

आकृति नं० 9

हे फीवर (Hay Fever) : इस रोग का सम्बन्ध सिर, नाक, आँखों तथा श्वासमार्ग से है । यह मुख्यतः एलर्जी का रोग है और आमतौर पर बसंतऋतु के अंत में पेड़ों, फूलों तथा कई तरह की घास के बारीक पराग धूलि से शुरू होता है और प्रायः गर्मियों में अधिक रहने के पश्चात एकाएक ठीक हो जाता है। वैसे यह रोग किसी ऋतु में भी हो सकता है। कुछ विशेष प्रकार के भोजन खाने से भी यह रोग हो जाता है। ‘हे फीवर’ का रोग कई लोगों को बचपन में ही शुरू हो जाता है और गाँवों की अपेक्षा शहरों में अधिक लोग इससे पीड़ित रहते हैं ।

इस रोग में एलर्जी के कारण नाक की भीतरी झिल्ली सूज जाती है जिससे रोगी को साँस लेने में भी कठिनाई होती है। नाक से पानी बहना, आँखें गीली होकर आँसू आना, सिर भारी रहना और लगातार छींके आना इस रोग के मुख्य लक्षण हैं। ‘हे फीवर’ के कारण कई लोगों को पूरी नींद भी नहीं आती तथा पेट खराब रहने लगता है। कुछ व्यक्तियों को इस रोग के कारण शरीर पर बहुत कष्टकर तीव्र खुजली होती है। अगर रोग बढ़ जाये तो दमा बन जाता है।

‘हे फीवर’ में डाक्टर प्रायः नाक में डालने के ड्रॉप्स, स्प्रे तथा इंजेक्शन बताते हैं । इन दवाइयों से इस रोग में कुछ आराम तो मिलता है पर ये रोग को दूर करने में असमर्थ हैं। एक्युप्रेशर द्वारा शरीर में रोगनाशक शक्ति को जागृत करके इस रोग को दूर किया जा सकता है।

इस रोग को दूर करने के लिए उपरोक्त दर्शायी गई सारी आकृतियों ( आकृति नं0 1 से आकृति नं० 9) अनुसार प्रतिदिन प्रेशर देना चाहिए। इनके अतिरिक्त बड़ी आँत तथा गुर्दों के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी प्रेशर दें। ‘है फीवर’ के रोगियों को ठंडे पदार्थ तथा ठंडी वस्तुएँ नहीं खानी चाहिए। अगर रोग पुराना हो तो पूरी तरह ठीक होने में दो-तीन महीने लग जाते हैं अन्यथा 15-20 दिनों में ही रोग दूर हो जाता है।

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